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प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा.......
अष्टम अध्याय......{454} सुमंगलविलासिनी टीका में मिलता है । बुद्धघोष ने आजीवक सम्प्रदाय की आध्यात्मिक विकास के आठ सोपान निर्देशित किए हैं। मन्द, खिड्डा, पदवीमंसा, उज्जुगत, सेख, खमण, जिन और पन्न । इनका आध्यात्मिक दृष्टि से क्या आशय है, यह तो ग्रन्थाभाव होने से प्रामाणिक रूप से कुछ कहा नहीं जा सकता है, परन्तु मज्झिमनिकाय की सुमंगविलासिनी टीका में इनका वर्णन इस रूप में देखने को मिलता है ।
(१) मन्द - बुद्धघोष के अनुसार जन्म से लेकर सात दिन तक गर्भनिष्क्रमणजन्य दुःख के कारण मन्द स्थिति है । यह भूमि जैनदर्शन में मिथ्यात्व नामक प्रथम गुणस्थान के समान ही होनी चाहिए ।
(२) खिड्डा - जो बालक दुर्गति से आकर जन्म लेता है, वह बार-बार रुदन करता है और सुगति से आने वाला बालक सुगति का स्मरण कर पुनः पुनः हास्य करता है, इसे क्रीड़ाभूमिका कह सकते हैं । यह अवस्था जैन परम्परा के अविरतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान के समान होनी चाहिए ।
(३) पदवीमंसा - बुद्धघोष के अनुसार जिस प्रकार बालक माता-पिता का सहारा लेकर पृथ्वी पर पैर रखता है, उसी प्रकार इस अवस्था में साधक गुरु का आश्रय लेकर साधना के क्षेत्र में अपना कदम रखता है। पदवींमंसा का अर्थ है कदम रखना । अतः वह आध्यात्मिक क्षेत्र में कदम रखता है । इसे हम जैनदर्शन के पंचम देशविरति सम्यग्दृष्टि गुणस्थान के समकक्ष मान सकते हैं ।
(४) ऋजुगत बुद्धघोष ने यह माना है कि जब बालक पैरों पर बिना सहारे चलने लगता है तब उज्जुगत (ऋजुगत) अवस्था होती है । जैन परम्परा में श्रावक की प्रतिमाओं के समान यह अवस्था होनी चाहिए ।
(५) शैक्ष - शैक्ष भूमिका । बुद्धघोष के अनुसार यह अवस्था शिल्पकला के अध्ययन की अवस्था है । जैन परम्परा में सामायिक चारित्र जैसी भूमि के समकक्ष मानना चाहिए । ४६३ जैनदर्शन में छठे प्रमत्तसंयत गुणस्थान से इसकी तुलना की जा सकती है ।
(६) श्रमण - बुद्धघोष ने इसे सन्यास ग्रहण की अवस्था माना है । जैन परम्परा में इसे अप्रमत्तसंयत गुणस्थान के समान माना जा सकता है ।
(७) जिन - बुद्धघोष ने इसे आचार्य की उपासना करके ज्ञान प्राप्त करने की भूमि माना है । जैनदर्शन में इस भूमि को सयोगकेवली गुणस्थान या बौद्ध परम्परा की अर्हत् अवस्था के समकक्ष मानी जा सकती है।
(८) प्राप्त - बुद्धघोष ने भिक्षु को स्वानुभूति में रमण करने वाली निर्लोभवृत्ति की प्राप्ति होना प्राज्ञ अवस्था है । जैन परम्परा में यह अवस्था भी सयोगी और अयोगीकेवली गुणस्थानों के समान होनी चाहिए।
परन्तु यह वर्णन युक्तिसंगत प्रतीत नहीं होता है, क्योंकि इस विवेचन में व्यावहारिक जीवन के दर्शन होते हैं । इन्हें आध्यात्मिक विकास की भूमिकाएँ नहीं कह सकते । फिर भी अविकास और विकास की दृष्टि से इसका वर्गीकरण किया जाये, तो प्रथम की तीन अविकास की और शेष पांच विकास की सूचक अवश्य मानी जा सकती हैं ।
इस प्रकार हम देखते हैं कि आत्मविकास की जिज्ञासा वाले दर्शनों ने अपने-अपने ढंग से आध्यात्मिक विकासक्रम का उल्लेख किया है । यह तो निश्चित है कि मोक्ष को स्वतन्त्र पुरुषार्थ मान कर उसकी उपलब्धि सभी को इष्ट है ।
युंग का व्यक्तित्व मनोविज्ञान और गुणस्थान
आधुनिक मनोविज्ञान की दृष्टि से गुणस्थानों की अवधारणा की तुलना का एक प्रयत्न डॉ. प्रमिला जैन ने षट्खण्डागम में गुणस्थान विवेचन नामक पुस्तक में किया है । हम उसी को आधार रूप मानकर यहाँ गुस्ताव युंग के व्यक्तित्व विकास के सिद्धान्त गुणस्थानों की अवधारणा की तुलना प्रस्तुत करेंगे। गुस्ताव युंग आधुनिक मनोविज्ञान के एक प्रमुख चिंतक रहे है, व्यक्तित्व मनोविज्ञान उनका प्रमुख विषय रहा है ।
उन्होंने आत्म विकास या व्यक्तित्व विकास की पांच भूमिकाएं मानी हैं - (१) मुखौटा (परसौना) (२) छाया (शेडो) (३) स्त्री-पुरुष प्रतिमा (स्त्रीवेद-पुंवेद) (ऍनिमा-ऍनिमस) (४) महान व्यक्तित्व (मोनो-पर्सनलिटी) (५) मंडलानुभूति ।
(१) मुखौटा -
युंग मानते हैं कि व्यक्तिको वातावरण के साथ अभियोजन (एडजस्टमेंट) करना पड़ता है । इस क्रम में उसका एक नकली ४६३ दर्शन और चिन्तन (गुजराती), पृ. १०२२
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