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प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा......
अष्टम अध्याय........{455} चेहरा बन जाता है, जिसे उन्होंने 'परसौना' या 'मुखौटा' कहा है । परसौना एक मिथ्या व्यक्तित्व (फॉल्स-ऍपीअरेन्स) है, जिसे व्यक्ति अपने ऊपर ओढ़ लेता है। परिणाम यह होता है कि व्यक्ति भीतर से कुछ और होता है और बाहर से कुछ और । भीतर में तो अंहकार और दंभ होता है और बाहर विनय की मूर्ति के रूप में अपने को प्रदर्शित करता है । उसकी कथनी और करनी में बहुत बड़ा अन्तर होता है । इस मिथ्या जीवन से व्यक्ति के जीवन में एक दरार बन जाती है । ऐसे जीवन जीनेवाला अपने आपको भूल जाता है और उस मुखौटे को ही अपना यर्थाथ स्वरूप मान लेता है । अपने नकली चेहरे के कारण बाहय जीवन में सफल हो जाए, परन्तु आन्तरिक जीवन में सफल नहीं हो सकता । बाह्य जीवन में सफलता मिलने पर भी आन्तरिक जीवन में असंतुष्ट रहता है, उनमें आत्मज्ञान का अभाव रहता है । वे नकली और सतही जीवन जीते हैं । अतएव प्रायः जीवन के उत्तरार्द्ध में उनमें निराशा के भाव आ जाते हैं, जिसे युंग ने 'सेन्स ऑफ पर्सनल नथिंगनेस' कहा है । वे मानते हैं कि ऐसी अवस्था में आकर सांसारिक जीवन में सफल होने वाले को आध्यात्मिक जीवन में शून्यता का एहसास होता है । अपना स्वयं का जीवन मूल्यहीन प्रतीत होता है । दम्भ के कारण ऐसे लोग भीतर से खोखले बन जाते हैं । इसी कारण उनमें स्वयं को जानने की उत्कट आकांक्षा जागृत होती है। यहीं से व्यक्ति में आध्यात्मिक जिज्ञासा और अनुसंधान की शुरूआत होती है। व्यक्ति जब तक अपने नकली चेहरे को न पहचान ले, तब तक अपने वास्तविक स्वरूप को नहीं पहचान सकता है । युंग के अनुसार मुखौटे की अवस्था मिथ्यात्व नामक प्रथम गुणस्थान की अवस्था है । इसमें यह जीव अनादिकाल से मिथ्यात्व का मुखौटा पहनकर अपने आपको भूला हुआ है, अतः जीव माया, मिथ्यात्व और निदान का पात्र बना हुआ है । (२) छाया (शेडो)
जब व्यक्ति मिथ्या व्यक्तित्व के आमने-सामने होता है, तो सर्वप्रथम उसकी ही छाया (शेडो) से मुलाकात होती है । छाया व्यक्ति की आत्मा का ही अंधकारपूर्ण पहलू है । जैसे सूर्य की ओर पीठ कर देने पर छाया बन जाती है, उसी प्रकार आत्मा जो ज्ञान स्वरूप है, उसकी ओर पीठ कर देने पर अर्थात् आत्मा से विमुख होने पर अपनी ही छाया का जन्म होता है । आत्मज्ञान के अभाव में व्यक्ति में दुर्भावों (ईविल टेंडेंसीज) का उदित होना स्वभाविक है । ये दुर्भावना ही छाया का निर्माण करती है, फलस्वरूप व्यक्ति असदाचरण में तल्लीन रहता है।
फलस्वरूप व्यक्ति उस 'छाया' को सामूहिक अचेतन की आदिम प्रतिमाओं पर प्रक्षिप्त कर देता है। फलस्वरूप उसके मन में भूत, प्रेत, दानव, पिशाच आदि की प्रतिमाएँ आने लगती हैं ।
चूंकि इनमें व्यक्ति अपनी ही आत्मा का प्रक्षेप पाता है, इसीलिए स्वभावतः ये प्रतिमाएँ उसे मोहक एवं आकर्षक प्रतीत होती है । फलस्वरूप प्रेत-पूजा (घोस्ट वर्शिप) का जन्म होता है। छाया के स्वरूप को जानकर अब वह आत्म साक्षात्कार हेतु प्रयत्न करता है, तब उसे अपनी गलतियाँ दिखती है, जिन्हें वह दूसरों में देखता था या भूत-प्रेत जैसी मान्यताएँ जिनके अस्तित्व के लिए खड़ी कर लेता था और अपनी उस छाया, उन अपने ही भीतर छिपी हुई दुष्प्रवृत्तियों को जानकर उनसे मुक्त होने का प्रयास करता है । भ्रम को भ्रम जान लेने से ही भ्रम टूटता है । तब जैसा कि कबीर ने लिखा है, व्यक्ति अनुभव करता है -
बुरा जो देखन में चला, बुरा न मिलिया कोय ।
जो दिल खोजा आपणां, मुझसा बुरा न कोय ।। जैन दर्शन के अनुसार इस छाया को द्वितीय एवं तृतीय गुणस्थान की अवस्था कहा जा सकता है, जिसमें यह भव्यात्मा अपने स्वरूप की पहिचान की तरफ पीठ करके कभी मिथ्यात्व की ओर झुकती है और कुछ ही क्षणों में घोर अन्धकार में चली जाती है, अथवा सम्यक्त्व एवं मिथ्यात्व के बीच अनिर्णय की स्थिति में रहती है। (३) पुंवेद-स्त्रीवेद -
युंग मानते हैं कि प्रत्येक व्यक्ति में दोनों वेद रहते हैं । वेद की अपेक्षा कोई भी व्यक्ति पूर्णतः पुरुष या स्त्री नहीं होता है। पुरुष और स्त्री दोनों वेद होते हैं । पुरुष में पुंवेद, जिसे युंग ने 'ऍनिमस' कहा है, प्रधान रहता है और स्त्रीवेद जिसे युंग ‘एनिमा' कहते हैं, गौण है । इससे विपरीत स्थिति नारी में होती है। प्रत्येक व्यक्ति की चेतना का अर्धांश उसके अचेतन/अवचेतन में अवदर्भित रहता है, क्योंकि व्यक्ति अपनी चेतना को बाहय विषयों पर प्रक्षिप्त करता है, इसीलिए पुरुष का स्त्री के
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