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________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा..... पंचम अध्याय........{368} अट्ठाईस प्रकृतियों की सत्ता होती है, किन्तु सम्यक्त्व की उद्वलना करनेवाले को मोहनीय कर्म की सत्ताईस कर्मप्रकृतियों की ही सत्ता होती है, अनन्तानुबन्धी की उद्वलना करनेवाले को मोहनीय कर्म की चौबीस प्रकृतियों की सत्ता होती है, इसलिए मिश्र गुणस्थान में २८, २७ और २४-ऐसे तीन सत्तास्थान होते हैं। मोहनीय कर्म की छब्बीस प्रकृतियों की एक साथ सत्ता मिश्र गुणस्थान में नहीं होती है। सास्वादन और मिश्र गुणस्थान में निश्चय से मिश्र मोहनीय की सत्ता होती है । मिथ्यात्व से उपशान्तमोह तक दूसरे एवं तीसरे गुणस्थान को छोड़कर नौ गुणस्थानों में मिश्रमोहनीय की सत्ता विकल्प से होती है । जो मिथ्यात्वी जीव मोहनीय कर्म की छब्बीस प्रकृतियों की सत्तावाले होते हैं, उन्हें मिश्र मोहनीय की सत्ता नहीं होती है, अन्यों को होती है । चौथे गुणस्थान से लेकर ग्यारहवें गुणस्थान तक जो क्षायिक सम्यग्दृष्टि हैं, उन्हें मिश्रमोहनीय की सत्ता नहीं होती है, अन्य को होती है । प्रथम गुणस्थान में अनन्तानुबन्धी कषाय निश्चय से बन्ध और उदय में रहता है, दूसरे गुणस्थान में और उदय में निश्चय से हो, तो ही सत्ता में रहता है । मिश्र से उपशान्तमोह तक, इन नौ गुणस्थानों में अनन्तानुबन्धी कषाय की सत्ता विकल्प से होती है । जिनको अनन्तानुबन्धी कषाय को छोड़कर मोहनीय कर्म की शेष २४ प्रकृतियों की सत्ता होती है, उन्हें मिश्र गुणस्थान नहीं होता है, किन्तु जिन्हें मोहनीयकर्म की २७ या २८ कर्मप्रकृतियाँ सत्ता में रहती है, उसे तृतीय मिश्र गुणस्थान होता है । जिन्हें चतुर्थ से एकादश गुणस्थान तक मोहनीयकर्म की २१, २२, २३ या २४ प्रकृतियों की सत्ता होती है, उनमें अनन्तानुबन्धी की सत्ता नहीं होती है, किन्तु २७, २८ की सत्तावाले में अनन्तानुबन्धी की सत्ता होती है । आहारकसप्तक की सत्ता सभी गुणस्थानों में विकल्प से होती है । जो अप्रमत्त साधु संयमप्रत्ययिक आहारक सप्तक का बन्ध करके अग्रिम गुणस्थान में आरोहण करे अथवा ऊपर के गुणस्थान से पतित हो उसे आहारकसप्तक की सभी गुणस्थानों में सत्ता होती है तथा जो आहारक सप्तक का बन्ध ही न करे, उसे आहारकसप्तक की सत्ता नहीं होती है । दूसरे और तीसरे गुणस्थान को छोड़कर सभी गुणस्थान में तीर्थंकर नामकर्म की सत्ता विकल्प से होती है। कोई भी जीव सम्यक्त्व प्रत्ययिक तीर्थकर नामकर्म बांधकर अग्रिम गुणस्थानों में आरोहण करे, तो सभी गुणस्थानों में तीर्थंकर नामकर्म की सत्ता होती है तथा किसी जीव ने पूर्व में नरकायुष्य का बन्ध करके क्षायोपशमिक सम्यक्त्व प्राप्तकर तथाविध अध्यवसाय में तीर्थंकर नामकर्म का बन्ध कर अन्त समय में सम्यक्त्व का वमन कर मिथ्यात्व गुणस्थान प्राप्त कर नरक में जाए, तब मिथ्यात्व गुणस्थान में जिननाम की सत्ता होती है तथा जो शुद्ध सम्यक्त्व को प्राप्त होने पर भी जिननाम का बन्ध न करे उसे सभी गुणस्थानों में तीर्थंकर नाम कर्म की सत्ता नहीं होती है । तीर्थकर नामकर्मवाले जीव सास्वादन और मिश्र गुणस्थान को प्राप्त नहीं करते है, इसीलिए तीर्थकर नामकर्म का इन दो गुणस्थानों में निषेध किया गया है । आहारक सप्तक और तीर्थकर नामकर्म-इन दोनों की सत्तावाले जीव मिथ्यात्व गुणस्थान का स्पर्श नहीं करते हैं। पूर्व में नरकायुष्य का बन्ध करके क्षायोपशमिक सम्यक्त्व प्राप्त कर तीर्थकर नामकर्म का बन्ध करें, तो जीव, मृत्यु के समय सम्यक्त्व का वमन करके मिथ्यात्व गुणस्थान को प्राप्त होकर नरक में उत्पन्न हो, वहाँ तुरन्त सम्यक्त्व प्राप्त करता है, इसीलिए कहा है कि तीर्थकर नामकर्म सत्ता में होने पर भी अन्तर्मुहूर्त पर्यन्त मिथ्यात्व गुणस्थान को प्राप्त होता है। पंचम शतक नामक कर्मग्रन्थ में किस गुणस्थानवी जीव किन कर्म प्रकृतियों का उत्कृष्ट बन्ध करता है, इसकी विवेचना उपलब्ध होती है। उसकी ४२, ४४ एवं ४५ वीं गाथा में कहा गया है कि मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवी जीव आहारकद्विक तीर्थकर नामकर्म और उत्कृष्ट देवायु को छोड़कर शेष बन्ध योग्य १०६ प्रकृतियों का उत्कृष्ट बन्ध करते हैं । देवायु का उत्कृष्ट बन्ध प्रमत्तसंयत नामक छठे गुणस्थान में ही होता है । आहारकद्विक का उत्कृष्ट बन्ध अप्रमत्तसंयत नामक सातवें गुणस्थान में होता है। तीर्थकर नामकर्म का उत्कृष्ट बन्ध अविरतसम्यग्दृष्टि नामक चौथे गुणस्थान में होता है। यहाँ यह भी ज्ञातव्य है कि क्षपकश्रेणी से आरोहण करनेवाला अपूर्वकरण गुणस्थानवी जीव आहारकद्विक और तीर्थंकर नामकर्म का बन्ध तो करता है, किन्तु उनकी जघन्य स्थिति का बन्ध करता है, उत्कृष्ट स्थिति का नहीं । इसी प्रकार अनिवृत्तिकरण गुणस्थान नामक नवें गुणस्थानवी जीव संज्वलन कषाय और पुरुषवेद का बन्ध तो कर सकता है, किन्तु वह जघन्य स्थिति का बन्ध कर सकता है, उत्कृष्ट स्थिति का नहीं। इसी प्रकार सूक्ष्मसंपराय गुणस्थानवी जीव सातावेदनीय, यश नामकर्म, उच्चगोत्र, पाँच ज्ञानावरणीय, चार दर्शनावरणीय Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001733
Book TitlePrakrit evam Sanskrit Sahitya me Gunsthan ki Avadharana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarshankalashreeji
PublisherRajrajendra Prakashan Trust Mohankheda MP
Publication Year2007
Total Pages566
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, Soul, & Spiritual
File Size20 MB
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