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________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा...... पंचम अध्याय........{369) और पाँच अन्तराय कर्मों की जघन्य स्थिति का ही बन्ध करता है, उत्कृष्ट का नहीं । उपशान्तमोह नामक ग्यारहवें, क्षीणमोह नामक बारहवें, सयोगीकेवली नामक तेरहवें गुणस्थान में सातावेदनीय का ही बन्ध सम्भव होता है, किन्तु इन तीनों गुणस्थानवर्ती जीव सातावेदनीय का जघन्य स्थितिबन्ध करते हैं, उत्कृष्ट का नहीं। यहाँ यह ज्ञातव्य है कि उत्कृष्ट स्थिति बन्ध संक्लिष्ट परिणामों के होने पर ही सम्भव होता है और सातवें गुणस्थान के पश्चात् संक्लिष्ट परिणाम होते नहीं हैं, इसीलिए सातवें गुणस्थान के पश्चात् उत्कृष्ट स्थितिबन्ध का अभाव कहा गया है । चौथे गुणस्थान में तीर्थंकर नामकर्म का और प्रमत्तसंयत नामक गुणस्थान में आहारकद्विक और देवायु का जो उत्कृष्ट स्थितिबन्ध कहा गया है, वहाँ संक्लिष्ट परिणाम तो होते हैं, किन्तु ये संक्लिष्ट परिणाम भी शुभ भावों को लेकर ही होते हैं। अविरतसम्यग्दृष्टि, देशविरत, प्रमत्तसंयत आदि में जो संक्लिष्ट परिणाम कहे गए हैं, वे शुभ भावों की या प्रशस्त राग की अपेक्षा से ही समझना चाहिए, क्योंकि इन चार प्रकृतियों को छोड़कर शेष सभी कर्मप्रकृतियों का उत्कृष्ट स्थितिबन्ध केवल मिथ्यादृष्टि गुणस्थान में ही सम्भव होता है । इस प्रकार पंचम कर्मग्रन्थ में जो उत्कृष्ट और जघन्य स्थितिबन्ध की चर्चा उपलब्ध होती है, उसमें गुणस्थानों की दृष्टि से उपर्युक्त अवधारणाएं मिलती हैं । शतक नामक पंचम कर्मग्रन्थ की ४८ वीं गाथा में, किस गुणस्थान में कितनी कालस्थिति का बन्ध होता है, इसका विवचेन किया गया है। इसमें बताया गया है कि वैसे तो मिथ्यात्व गुणस्थान में मोहनीय कर्म का उत्कृष्ट बन्ध ७० कोडाकोडी सागरोपम है, ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, वेदनीय और अन्तराय कर्म का उत्कृष्ट बन्ध ३० कोडाकोडी सागरोपम होता है तथा नाम और गोत्र कर्म का उत्कृष्ट बन्ध २० कोडाकोडी सागरोपम होता है, किन्तु साधक जब ग्रंथिभेद कर लेता है, तो फिर कर्मबन्ध की स्थिति अति न्यून हो जाती है । ग्रंथिभेद तभी सम्भव होता है, जब सभी कर्मो की उत्कृष्ट स्थिति अन्तः कोडाकोडी सागरोपम से अधिक न हो । अतः दूसरे सास्वादन गुणस्थान से लेकर आठवें अपूर्वकरण गुणस्थान तक मोहनीय आदि कर्मों का बन्ध अन्तः कोडाकोडी सागरोपम की स्थितिवाला ही होता है, न तो उससे अधिक का कर्मबन्ध होता है और न ही कम का । शतक नामक पंचम कर्मग्रन्थ की ६०, ६१, ६२ वीं गाथा में मूल और उत्तर प्रकृतियों के उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध के स्वामी का वर्णन किया गया है । आष्युष्यकर्म के उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध के स्वामी उत्कृष्ट योगवाले मिथ्यादृष्टि, अविरतसम्यग्दृष्टि, देशविरत, प्रमत्तसंयत और अप्रमत्तसंयत गुणस्थानवर्ती संज्ञी पर्याप्त जीव होते हैं। मोहनीय कर्म के उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध के स्वामी दूसरे और तीसरे गुणस्थान को छोड़कर मिथ्यात्व गुणस्थान से लेकर अनिवृत्तिकरण तक सात गुणस्थानवर्ती उत्कृष्ट योगवाले जीव होते हैं। आयुष्य और मोहनीयकर्म को छोड़कर शेष छः कर्मों में ज्ञानावरणीय की पाँच, दर्शनावरण की नौ, अन्तराय की पाँच, सातावेदनीय, यशनामकर्म और उच्चगोत्र-इन १७ प्रकृतियों के उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध के स्वामी सूक्ष्मसंपराय गुणस्थानवी जीव होते हैं । अप्रत्याख्यानीय कषाय के उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध के स्वामी आयुष्य को छोड़कर शेष सात कर्मों का बन्ध करनेवाले अविरतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवी जीव होते हैं । प्रत्याख्यानीय कषाय के उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध के स्वामी आयुष्य को छोड़कर शेष सात कर्मों का बन्ध करनेवाले देशविरति गुणस्थानवी जीव होते हैं । पुरुषवेद और संज्वलनकषाय चतुष्क के उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध के स्वामी उत्कृष्ट योगवाले अनिवृत्तिबादरसंपराय गणस्थानवी जीव होते हैं । शुभविहायोगति, मनुष्याय, देवत्रिक, सुभगत्रिक, वैक्रियद्विक, समचतुरन संस्थान, असातावेदनीय और वज्रऋषभनाराच संघयण-इन १३ प्रकृतियों के उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध के स्वामी उत्कृष्ट कर्म । निद्रा, प्रचला, हास्य, रति, शोक, अरति, भय, जुगुप्सा और तीर्थंकर नामकर्म-इन नौ प्रकृतियों के उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध के स्वामी सम्यग्दृष्टि जीव हैं । आहारकद्विक के उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध के स्वामी सुयति अर्थात् सम्यक् चरित्र का पालन करने वाले मुनि होते हैं और शेष नामकर्म की ६६ प्रकृतियों के उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध के स्वामी मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवी जीव होते हैं। शतक नामक पंचम कर्मग्रन्थ की ६३ वीं गाथा में उत्तर कर्मप्रकृतियों के जघन्य प्रदेशबन्ध के स्वामी की चर्चा है । अप्रमत्त गुणस्थानवर्ती यति परावर्तमान अष्टविध बन्धक स्वप्रायोग्य नामकर्म की ३१ प्रकृतियों का बन्ध करते समय आहारकद्विक का जघन्य प्रदेशबन्ध करता है । परावर्तमान योगवाला असंज्ञी पर्याप्त जीव नरकत्रिक और देवायु इन चार प्रकृतियों का जघन्य Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001733
Book TitlePrakrit evam Sanskrit Sahitya me Gunsthan ki Avadharana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarshankalashreeji
PublisherRajrajendra Prakashan Trust Mohankheda MP
Publication Year2007
Total Pages566
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, Soul, & Spiritual
File Size20 MB
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