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________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा...... तृतीय अध्याय........{114} है । नपुंसकवेदवाले सास्वादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवी जीव लोक का असंख्यातवाँ भाग स्पर्श करके रहे हुए हैं। नपुसंकवेदवाले सास्वादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवी जीव अतीत और अनागत काल की अपेक्षा कुछ कम बारह बटे चौदह भाग स्पर्श करके रहे हुए हैं । नपुंसकवेदवाले सम्यग्मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवी जीव लोक का असंख्यातवाँ भाग स्पर्श करके रहे हुए हैं। नपुंसकवेदवाले असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवर्ती और संयतासंयत गुणस्थानवी जीव लोक का असंख्यातवाँ भाग स्पर्श करके रहे हा अतीत और अनागत काल की अपेक्षा कुछ कम छः बटे चौदह भाग स्पर्श करके रहे हुए हैं। नपुंसकवेदवाले जीवों में प्रमत्तसंयत गुणस्थान से लेकर अनिवृत्तिकरण गुणस्थान तक प्रत्येक गुणस्थानवी जीव का स्पर्शक्षेत्र सामान्य कथन के समान है । अपगतवेदवाले जीवों में अयोगीकेवली गुणस्थान तक प्रत्येक गुणस्थानवी जीव का स्पर्शक्षेत्र ओघ कथन के समान है। अपगतवेदवाले सयोगीकेवली गुणस्थानवी जीवों का स्पर्शक्षेत्र ओघ कथन के समान है। कषायमार्गणा में क्रोधकषायवाले, मानकषायवाले, मायाकषायवाले और लोभकषायवाले जीवों में मिथ्यादृष्टि गुणस्थान से लेकर अनिवृत्तिकरण गुणस्थान तक प्रत्येक गुणस्थानवी जीवों का स्पर्शक्षेत्र ओघ कथन के समान है। विशेष यह है कि लोभकषायवाले जीवों में सूक्ष्मसम्पराय गुणस्थानवर्ती उपशमक और क्षपक जीवों का स्पर्शक्षेत्र ओघ कथन के समान है। अकषायवाले जीवों में उपशान्तकषाय आदि चार गुणस्थानवी जीवों का स्पर्शक्षेत्र ओघ कथन के समान है। ज्ञानमार्गणा में मति-अज्ञानवाले और श्रुत-अज्ञानियों में मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवी जीवों का स्पर्शक्षेत्र ओघ कथन के समान है । मति-अज्ञानवाले और श्रुत-अज्ञानवाले सास्वादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवी जीवों का स्पर्शक्षेत्र ओघ कथन के समान है। विभंगज्ञानियों में मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवी जीव लोक का असंख्यातवाँ भाग स्पर्श करके रहे हुए हैं। विभंगज्ञानवाले मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवी जीव अतीत और अनागत काल की अपेक्षा कुछ कम आठ बटे चौदह भाग स्पर्श करके रहे हुए हैं और मारणान्तिक समुद्घात को प्राप्त सम्पूर्ण लोक को स्पर्श करके रहे हुए हैं। विभंगज्ञानवाले सास्वादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवी जीवों का स्पर्शक्षेत्र ओघ कथन के समान है । आभिनिबोधिकज्ञानवाले, श्रुतज्ञानवाले और अवधिज्ञानवाले जीवों में असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान से लेकर क्षीणकषायवीतरागछद्मस्थ गुणस्थान तक प्रत्येक गुणस्थानवी जीवों का स्पर्शक्षेत्र ओघ कथन के समान है। मनःपर्यवज्ञानियों में प्रमत्तसंयत गणस्थान से लेकर क्षीणकषायवीतरागछद्मस्थ गुणस्थान तक प्रत्येक गुणस्थानवी जीवों का स्पर्शक्षेत्र ओघ कथन के समान है। केवलज्ञानियों में सयोगीकेवली गुणस्थानवी जीवों का स्पर्शक्षेत्र ओघ कथन के समान है। केवलज्ञानियों में अयोगीकेवली गुणस्थानवी जीवों का स्पर्शक्षेत्र ओघ कथन के समान है। __संयममार्गणा में संयतों में प्रमत्तसंयत गुणस्थान से लेकर अयोगीकेवली गुणस्थान तक प्रत्येक गुणस्थानवी जीवों का स्पर्शक्षेत्र ओघ कथन के समान है । संयतों में सयोगीकेवली गुणस्थानवी जीवों का स्पर्शक्षेत्र ओघ कथन के समान है । सामायिक और छेदोपस्थापनीय शुद्धि संयतों में प्रमत्तसंयत गुणस्थान से लेकर अनिवृत्तिकरण गुणस्थान तक प्रत्येक गुणस्थानवी जीवों का स्पर्शक्षेत्र ओघ कथन के समान है । परिहारविशुद्धिसंयतों में प्रमत्तसंयत और अप्रमत्तसंयत जीव लोक का असंख्यातवाँ भाग स्पर्श करके रहे हुए हैं । सूक्ष्मसंपरायशुद्धिसंयतों में सूक्ष्मसांपरायिक उपशमक और क्षपक जीवों का स्पर्शक्षेत्र ओघ कथन के समान है। यथाख्यातविहारशुद्धिसंयतों में अन्तिम चार गुणस्थानवी जीवों का स्पर्शक्षेत्र ओघ कथन के समान है । संयतासंयत गुणस्थानवर्ती जीवों का स्पर्शक्षेत्र ओघ कथन के समान है । असंयत जीवों में मिथ्यादृष्टि गुणस्थान से लेकर असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान तक प्रत्येक गुणस्थानवी जीवों का स्पर्शक्षेत्र ओघ कथन के समान है। ____ दर्शनमार्गणा में चक्षुदर्शनी मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवी जीव लोक का असंख्यातवाँ भाग स्पर्श करके रहे हुए हैं। विहार तथा वेदना, कषाय एवं वैक्रिय समुद्घात को प्राप्त चक्षुदर्शनी मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवी जीव अतीत और अनागत काल की अपेक्षा कुछ कम आठ बटे चौदह भाग और मारणान्तिक समुद्घात व उपपाद प्राप्त सम्पूर्ण लोक का स्पर्श करके रहे हुए हैं। सास्वादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थान से लेकर क्षीणकषायवीतरागछद्मस्थ गुणस्थान तक प्रत्येक गुणस्थानवर्ती चक्षुदर्शनी जीवों का स्पर्शक्षेत्र ओघ कथन के समान है । अवधिदर्शनी जीवों का स्पर्शक्षेत्र अवधिज्ञानियों के समान है । केवलदर्शनी जीवों का स्पर्शक्षेत्र केवलज्ञानियों के समान Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001733
Book TitlePrakrit evam Sanskrit Sahitya me Gunsthan ki Avadharana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarshankalashreeji
PublisherRajrajendra Prakashan Trust Mohankheda MP
Publication Year2007
Total Pages566
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, Soul, & Spiritual
File Size20 MB
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