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________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा... तृतीय अध्याय........{115} लेश्यामार्गणा में कृष्णलेश्या, नीललेश्या और कापोतलेश्यावाले मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवर्ती जीवों का स्पर्शक्षेत्र ओघ कथन के समान है । इन तीनों अशुभलेश्यावाले सास्वादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवर्ती जीव लोक का असंख्यातवाँ भाग स्पर्श करके रहे हुए हैं। तीनों अशुभलेश्यावाले सास्वादनसम्यग्दृष्टि जीव अतीत और अनागत काल की अपेक्षा कुछ कम पांच बटे चौदह भाग और दो बटे चौदह भाग का स्पर्श करके रहे हुए हैं। यह स्पर्शक्षेत्र अनुक्रम से मारणान्तिक समुद्घात और उपपाद पदों में वर्तमान छठी पृथ्वी के कृष्णलेश्यावाले, पांचवी पृथ्वी के नीललेश्यावाले और तीसरी पृथ्वी के कापोतलेश्यावाले सास्वादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवर्ती समझना चाहिए। तीनों अशुभलेश्यावाले सम्यग्मिथ्यादृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवी जीव लोक का असंख्यातवाँ भाग स्पर्श करके रहे हुए हैं। तेजोलेश्यावाले मिथ्यादृष्टि और सास्वादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवी जीव लोक का असंख्यातवाँ भाग स्पर्श करके रहे हुए हैं। तेजोलेश्यावाले मिथ्यादृष्टि और सास्वादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवर्ती अतीत और अनागत काल की अपेक्षा कुछ कम आठ बटे चौदह भाग तथा कुछ कम नौ बटे चौदह भाग स्पर्श करके रहे हुए हैं। तेजोलेश्यावाले सम्यग्मिथ्यादृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवी जीव लोक के असंख्यातवें भाग का स्पर्श करके रहे हुए हैं। ये जीव अतीत और अनागत काल की अपेक्षा कुछ कम आठ बटे चौदह भाग स्पर्श करके रहे हुए हैं। तेजोलेश्यावाले संयतासंयत गुणस्थानवर्ती जीव लोक का असंख्यातवाँ भाग स्पर्श करके रहे हुए हैं। तेजोलेश्यावाले संयतासंयत गुणस्थानवी जीव अतीत और अनागतकाल की अपेक्षा कुछ कम डेढ़ बटे चौदह भाग स्पर्श करके रहे हुए हैं। तेजोलेश्यावाले प्रमत्तसंयत और अप्रमत्तसंयत गुणस्थानवी जीवों का स्पर्शक्षेत्र ओघ कथन के समान है । पद्मलेश्यावाले जीवों में मिथ्यादृष्टि गुणस्थान से लेकर असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान तक प्रत्येक गुणस्थानवी जीव लोक का असंख्यातवाँ भाग स्पर्श करके रहे हुए हैं। मिथ्यादृष्टि गुणस्थान से लेकर असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवर्ती पद्मलेश्यावाले जीव अतीत और अनागत की अपेक्षा कुछ कम आठ बटे चौदह भाग स्पर्श करके रहे हुए हैं। पद्मलेश्यावाले संयतासंयत गुणस्थानवी जीव लोक का असंख्यातवाँ भाग स्पर्श करके रहे हुए हैं। पद्मलेश्यावाले संयतासंयत गुणस्थानवर्ती जीव अतीत और अनागत काल की अपेक्षा कुछ कम आठ बटे चौदह भाग का स्पर्श करके रहे हुए हैं। पद्मलेश्यावाले प्रमत्तसंयत और अप्रमत्तसंयत गुणस्थानवी जीवों का स्पर्शक्षेत्र ओघ कथन के समान है । शुक्ललेश्यावाले जीवों में मिथ्यादृष्टि गुणस्थान से लेकर संयतासंयत गुणस्थान तक प्रत्येक गुणस्थानवी जीव लोक का असंख्यातवाँ भाग स्पर्श करके रहे हुए हैं। शुक्ललेश्यावाले मिथ्यादृष्टि गुणस्थान से लेकर संयतासंयत गुणस्थान तक प्रत्येक गुणस्थानवी जीव अतीत और अनागत काल की अपेक्षा छ: बटे चौदह भाग स्पर्श करके रहे हुए हैं। प्रमत्तसंयत गुणस्थान से लेकर सयोगीकेवली गुणस्थान तक प्रत्येक गुणस्थानवर्ती शुक्ललेश्यावाले जीव का स्पर्शक्षेत्र ओघ कथन के समान है। भव्यमार्गणा में भव्यसिद्धिक जीव मिथ्यादृष्टि गुणस्थान से लेकर अयोगीकेवली गुणस्थान तक प्रत्येक गुणस्थानवी जीव का स्पर्शक्षेत्र ओघ कथन के समान है । अभव्यसिद्धिक जीव सम्पूर्ण लोक का स्पर्श करके रहे हुए हैं । सम्यक्त्वमार्गणा में सम्यग्दृष्टियों में असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान से लेकर अयोगीकेवली गुणस्थान तक प्रत्येक गुणस्थानवर्ती जीवों का स्पर्शक्षेत्र ओघ कथन के समान है । क्षायिकसम्यग्दृष्टियों में असंयतसम्यग्दृष्टि जीवों का स्पर्शक्षेत्र क्षेत्र ओघ कथन के समान है। क्षायिकसम्यग्दृष्टियों में संयतासंयत गुणस्थान से लेकर अयोगीकेवली गुणस्थान तक प्रत्येक गुणस्थानवी जीव लोक के असंख्यात भाग का स्पर्श करके रहे हुए हैं। क्षायिकसम्यग्दृष्टियों में सयोगीकेवली गुणस्थानवी जीवों का स्पर्शक्षेत्र ओघ कथन के समान है । वेदकसम्यग्दृष्टि जीवों में असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान से लेकर अप्रमत्तसंयत गुणस्थान तक प्रत्येक गुणस्थानवी जीवों का स्पर्शक्षेत्र ओघ कथन के समान है। उपशमसम्यग्दृष्टियों में असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवी जीवों का स्पर्शक्षेत्र ओघ कथन के समान है। संयतासंयत गणस्थान से लेकर उपशान्तकषायवीतरागछद्मस्थ गुणस्थान तक प्रत्येक गुणस्थानवर्ती उपशमसम्यग्दृष्टि लोक का असंख्यातवाँ भाग स्पर्श करके रहे हुए हैं। सास्वादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवी जीवों का स्पर्शक्षेत्र ओघ कथन के समान है। सम्यग्मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवी जीवों का भी स्पर्शक्षेत्र ओघ कथन के समान है। मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवर्ती जीवों का स्पर्शक्षेत्र ओघ कथन के समान है। Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001733
Book TitlePrakrit evam Sanskrit Sahitya me Gunsthan ki Avadharana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarshankalashreeji
PublisherRajrajendra Prakashan Trust Mohankheda MP
Publication Year2007
Total Pages566
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, Soul, & Spiritual
File Size20 MB
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