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प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा......
तृतीय अध्याय.....{116) संज्ञीमार्गणा में संज्ञी जीवों में मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवी जीव लोक का असंख्यातवाँ भाग स्पर्श करके रहे हुए हैं। संज्ञी मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवर्ती जीव अतीत काल की अपेक्षा विहार, वेदना, कषाय एवं वैक्रिय समुद्घात में कुछ कम आठ बटे चौदह भाग तथा मारणान्तिक समुद्घात और उपपाद पदों की अपेक्षा सम्पूर्ण लोक को स्पर्श करके रहे हुए हैं। संज्ञी जीव सास्वादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थान से लेकर क्षीणकषायवीतरागछद्मस्थ गुणस्थान तक प्रत्येक गुणस्थानवी जीवों का स्पर्शक्षेत्र ओघ कथन के समान है। असंज्ञी जीव सम्पूर्ण लोक का स्पर्श करके रहे हुए हैं।
आहारमार्गणा में आहारक जीवों में मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवी जीवों का स्पर्शक्षेत्र ओघ कथन के समान है। सास्वादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थान से लेकर संयतासंयत गुणस्थान तक प्रत्येक गुणस्थानवी आहारक जीवों का स्पर्शक्षेत्र ओघ कथन के समान है । आहारक जीवों में प्रमत्तसंयत गुणस्थान से लेकर सयोगीकेवली गुणस्थान तक प्रत्येक गुणस्थानवी जीव लोक का असंख्यातवाँ भाग स्पर्श करके रहे हुए हैं। अनाहारक जीवों में जिन गुणस्थानों की संभावना है, उन गुणस्थानवी जीवों का स्पर्शक्षेत्र कार्मणकाययोगियों के स्पर्शक्षेत्र के समान है । अयोगीकेवली गुणस्थानवी जीव लोक का असंख्यातवाँ भाग स्पर्श करके रहे हुए
पुष्पदंत एवं भूतबली प्रणीत षटखण्डागम नामक ग्रन्थ में कालानुगम नामक पंचम द्वार'८२ में बताया गया है कि कालानुगम से निर्देश दो प्रकार के हैं-ओघ अर्थात् सामान्यनिर्देश और आदेशनिर्देश अर्थात् विशेषनिर्देश।
सामान्य से अर्थात् सभी जीवों की अपेक्षा, से मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवी जीव सर्वकालों में अर्थात् सदैव होते हैं। उनका कभी अभाव नहीं होता है । एक जीव की अपेक्षा मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवी जीवों के काल तीन प्रकार के होते हैं -
१. अनादि-अनन्त २. अनादि-सान्त और ३. सादि-सान्त। एक जीव की अपेक्षा मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवी जीवों का सादि-सान्त काल जघन्यतः अन्तर्मुहूर्त है । एक जीव की अपेक्षा अनादि-अनन्त काल कहा गया है, वह अभव्य मिथ्यादृष्टि जीव की अपेक्षा से बताया गया है, क्योंकि अभव्य जीवों के मिथ्यात्व कान आदि है, न मध्य है और न अन्त है। भव्य मिथ्यादृष्टि जीवों का काल अनादि होकर भी सान्त है, क्योंकि वे मिथ्यात्व भाव से रहित होकर मुक्ति को प्राप्त करने वाले हैं। किसी-किसी भव्य मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवर्ती जीव के मिथ्यात्व का यह काल सादि-सान्त भी होता है, जो जघन्य से अन्तमुहूर्त मात्र है । वह इस प्रकार है - कोई सम्यग्मिथ्यादृष्टि, असंयतसम्यग्दृष्टि, संयतासंयत अथवा प्रमत्तसंयत गुणस्थानवी जीव परिणामों के निमित्त से मिथ्यात्व को प्राप्त होकर अन्तर्मुहूर्त काल वहाँ रह कर पुनः सम्यग्मिथ्यात्व को अंसयत के साथ सम्यक्त्व को, संयमासंयम को अथवा अप्रमत्तभाव के साथ संयम को प्राप्त हुआ, ऐसे जीव के मिथ्यात्व का काल जघन्य रूप से सर्वजघन्य अन्तर्मुहूर्त मात्र है। सास्वादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवी जीव के लिए ग्रहण किए हुए मिथ्यात्व को अतिसंक्लिष्ट परिणाम के कारण शीघ्र छोड़ नहीं पाते। एक जीव की अपेक्षा मिथ्यात्व का सादि-सान्त काल उत्कृष्ट से कुछ कम अर्धपुद्गल परावर्तन होता है। सास्वादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवर्ती सर्व जीवों की अपेक्षा जघन्य काल एक समय होता है । सास्वादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवर्ती सभी जीवों की अपेक्षा, उत्कृष्ट काल पल्योपम का असंख्यातवाँ भाग परिमाण है। दो, तीन अथवा चार इस प्रकार एक-एक अधिक बढ़ाते हुए पल्योपम के असंख्यातवें भाग मात्र उपशमसम्यग्दृष्टि जीव एक समय को आदि करके उत्कृष्ट से छः आवलि परिमाण उपशमसम्यक्त्व के काल में शेष रहने पर सास्वादन गुणस्थान को प्राप्त होकर जब तक मिथ्यात्व को प्राप्त नहीं होते, तब तक अन्य भी उपशमसम्यग्दृष्टि जीव सास्वादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थान को प्राप्त होते रहते हैं। इस प्रकार सभी जीवों की अपेक्षा उत्कृष्ट से पल्योपम का असंख्यातवाँ भाग जितना काल सासादन गुणस्थान का पाया जाता है। एक जीव की अपेक्षा सास्वादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थान का जघन्य काल एक समय मात्र है। एक उपशमसम्यग्दृष्टि जीव उपशम सम्यक्त्व के काल में एक समय अवशिष्ट रहने पर सासादन गुणस्थान को प्राप्त होता है और एक समय मात्र सासादन गुणस्थान में रहकर दूसरे समय में मिथ्यात्व को प्राप्त हो जाता है। इस प्रकार सासादन गुणस्थान का एक जीव की अपेक्षा जघन्य काल एक समय हैं। एक जीव की अपेक्षा सास्वादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थान का उत्कृष्ट काल
१८२ षटखण्डागम, पृ १२७ से १६८, प्रकाशनः श्री श्रुतभण्डार व ग्रन्थ प्रकाशन समिति, फलटण
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