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________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा....... तृतीय अध्याय ........{117} छः आवलि परिमाण है। एक उपशमसम्यग्दृष्टि जीव उपशमसम्यक्त्व के काल में छः आवलिओं के शेष रहने पर सासादन गुणस्थान को प्राप्त होकर वहाँ छः आवलि काल तक वहाँ रहकर फिर मिथ्यात्व को प्राप्त हो जाता है। इस प्रकार सास्वादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थान का उत्कृष्ट काल छः आवलि होता है। इससे अधिक काल नहीं होता है, क्योंकि उपशमसम्यक्त्व के काल में छः आवलियों से अधिक काल के शेष रहने पर जीव द्वितीय गुणस्थान को प्राप्त नहीं करता है । सम्यग्मिथ्यादृष्टि गुणस्थान सभी जीवों की अपेक्षा, जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट काल पल्योपम का असंख्यातवाँ भाग परिमाण है । एक जीव की अपेक्षा सम्यग्मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवर्ती जीव का जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है। कोई एक मिथ्यादृष्टि जीव विशुद्ध होता हुआ सम्यक्त्वमिथ्यात्व को प्राप्त होकर, पुनः सर्वलघु अन्तर्मुहूर्त काल सम्यग्मिथ्यादृष्टि रहकर विशुद्ध होता हुआ असंयम सहित सम्यक्त्व को प्राप्त हो जाता है, अथवा संक्लेश प्राप्त कोई वेदकसम्यग्दृष्टि जीव सम्यग्मिथ्यात्व को प्राप्त होकर और वहाँ पर सर्वलघु अन्तर्मुहूर्त काल रहकर संक्लेश के नष्ट हुए बिना ही मिथ्यात्व को प्राप्त हो जाता है, इस प्रकार भी सम्यग्मिथ्यात्व गुणस्थान का जघन्य अन्तर्मुहूर्त होता है । एक जीव की अपेक्षा सम्यग्मिथ्यादृष्टि गुणस्थान का उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है। विशुद्धि को प्राप्त होने वाला कोई एक मिध्यादृष्टि जीव सम्यग्मिथ्यात्व को प्राप्त होकर, वहाँ सर्वोत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त काल रहकर, संक्लेशयुक्त होता हुआ मिथ्यात्व को प्राप्त हो जाता है, इसी प्रकार एक जीव आश्रयी तृतीय गुणस्थान का उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त ही है। असंयतसम्यग्मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवर्ती जीव अतीत, अनागत और वर्तमान- इन तीनों कालों में पाए जाते हैं, अतः सभी जीवों की अपेक्षा असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान का काल अनादि-अनन्त है । एक जीव की अपेक्षा असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवर्ती जीवों का काल अन्तर्मुहूर्त है । जिसने पहले असंयमसहित सम्यक्त्व में बहुत बार परिवर्तन किया है, ऐसा कोई एक मोहनीय कर्म की अट्ठाईस प्रकृतियों की सत्ता रखनेवाला मिथ्यादृष्टि, सम्यग्मिथ्यादृष्टि, संयतासंयत अथवा प्रमत्तसंयत गुणस्थानवर्ती जीव असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान को प्राप्त करता है । वहाँ सर्वलघु अन्तर्मुहूर्त काल रहकर मिथ्यात्व, सम्यग्मिथ्यात्व, संयमासंयम अथवा अप्रमत्तसंयत गुणस्थान को प्राप्त होता है। इस प्रकार एक जीव की अपेक्षा असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान का जघन्य अन्तर्मुहूर्त होता है। एक जीव की अपेक्षा असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान का उत्कृष्ट काल साधिक तेंतीस सागरोपम है। यह इस प्रकार है - एक प्रमत्तसंयत, अप्रमत्तसंयत अथवा चारों उपशमकों में कोई एक उपशामक जीव एक समय कम तैंतीस सागरोपम परिमाण आयुष्य कर्म की स्थितिवाले अनुत्तरविमानवासी देवों में उत्पन्न हुआ, फिर यहाँ से च्युत होकर यह पूर्वकोटि परिमाण आयुवाले मनुष्यों में उत्पन्न होकर वहाँ अन्तर्मुहूर्त परिमाण आयु के शेष रहने तक असंयतसम्यग्दृष्टि रहकर तत्पश्चात् अप्रमत्तसंयत गुणस्थान को प्राप्त हुआ, पुनः प्रमत्तसंयत और अप्रमत्तसंयत गुणस्थान में सहस्त्रों परिवर्तन करके क्षपक श्रेणी के योग्य विशुद्धि करके अप्रमत्तसंयत गुणस्थान को प्राप्त हुआ, फिर अपूर्वकरणक्षपक अनिवृत्तिकरण क्षपक, सूक्ष्मसंपराय क्षपक, क्षीणकषायवीतरागछद्मस्थ, सयोगीकेवली और अयोगीकेवली गुणस्थान को प्राप्त कर सिद्धपद को प्राप्त हो, इस प्रकार इन नौ अन्तर्मुहूर्तों से कम और पूर्वकोटि वर्ष से अधिक तेंतीस सागरोपम असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान का काल होता हैं। संयतासंयत गुणस्थानवर्ती जीव सभी जीवों की अपेक्षा, सभी कालों में होते है । एक जीव की अपेक्षा संयतासंयत गुणस्थान का न्य अन्तर्मुहूर्त मात्र है। एक जीव की अपेक्षा संयतासंयत गुणस्थान का उत्कृष्ट काल कुछ कम एक पूर्वकोटि परिमाण है । प्रमत्तसंयत और अप्रमत्तसंयत गुणस्थानवर्ती जीव सभी जीवों की अपेक्षा, तीनों कालो में पाए जाते हैं। एक जीव की अपेक्षा प्रमत्तसंयत और अप्रमत्तसंयत गुणस्थानवर्ती जीवों का जघन्य काल एक समय है। प्रमत्तसंयत और अप्रमत्तसंयत गुणस्थान का उत्कृष्ट काल एक जीव की अपेक्षा अन्तर्मुहूर्त है। चारों उपशामक सभी जीवों की अपेक्षा, जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त हैं। एक जीव की अपेक्षा चारों उपशामकों का जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है। अपूर्वकरण आदि चारों क्षपक और अयोगकेवली गुणस्थानवर्ती सभी जीवों की अपेक्षा, जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है । सभी जीवों की अपेक्षा, चारों क्षपकों और अयोगकेवली गुणस्थानवर्ती जीवों का उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है । एक जीव की अपेक्षा भी चारों क्षपकों और अयोगीकेवली गुणस्थानवर्ती जीवों का जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है । एक जीव की अपेक्षा चारों क्षपकों और अयोगीकेवली गुणस्थानवर्ती जीवों Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001733
Book TitlePrakrit evam Sanskrit Sahitya me Gunsthan ki Avadharana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarshankalashreeji
PublisherRajrajendra Prakashan Trust Mohankheda MP
Publication Year2007
Total Pages566
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, Soul, & Spiritual
File Size20 MB
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