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________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा...... तृतीय अध्याय........{118} का उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है । सभी जीवों की अपेक्षा, सयोगीकेवली गुणस्थानवर्ती जिन सभी कालों में होते हैं। एक जीव की अपेक्षा सयोगीकेवली गुणस्थानवी जीवों का जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है । एक जीव की अपेक्षा सयोगीकेवली गुणस्थानवी जीवों का उत्कृष्ट काल कुछ कम पूर्व कोटि वर्ष परिमाण है। विशेष की अपेक्षा गतिमार्गणा में नरकगति में नारकियों में मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवी जीव सभी कालों में होते हैं। एक जीव की अपेक्षा नारकी मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवी जीव का जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है। एक जीव की अपेक्षा नारकी मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवी जीव का उत्कृष्ट काल तेंतीस सागरोपम है। सासादनसम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवर्ती नारकी जीवों का सभी जीवों की अपेक्षा तथा एक जीव की अपेक्षा जघन्य और उत्कृष्ट काल सामान्यवत् है । नारकी असंयतसम्यग्दृष्टि गणस्थानवी जीव सभी जीवों की अपेक्षा, सभी कालों में पाए जाते हैं। एक जीव की अपेक्षा नारकी में असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान का जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट काल कुछ कम तेंतीस सागरोपम है। प्रथम पृथ्वी से लेकर सातवीं पृथ्वी तक नारकियों में मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवी जीव, सभी जीवों की अपेक्षा, सभी कालों में होते हैं। एक जीव की अपेक्षा प्रथम पृथ्वी से लेकर सातवीं पृथ्वी तक के नारकी मिथ्यादृष्टि जीवों का जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त मात्र है । सातों नरक पृथ्वियों के नारकी मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवी जीवों का उत्कृष्ट काल क्रमशः एक, तीन, सात, दस, सत्रह, बाईस और तेंतीस सागरोपम परिमाण हैं। यह उत्कृष्ट काल उत्कृष्ट आयु के अनुसार जानना चाहिए। सातों पृथ्वियों के सास्वादनसम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टि गुणस्थान का, सभी जीवों की अपेक्षा, और एक जीव की अपेक्षा, जघन्य तथा उत्कृष्ट काल सामान्यवत् है । सातों पृथ्वियों में नारकी असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवी जीव तीनों कालों में होते है। एक जीव की अपेक्षा सातों पृथ्वियों में नारकी असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवी जीवों का जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है । सातों पृथ्वियों के नारकी असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवी जीवों का उत्कृष्ट काल क्रमशः कुछ कम एक, तीन, सात, दस, सत्रह, बाईस और तेंतीस सागरोपम है। __ तिर्यंचगति में तिर्यंचों में मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवी जीव सभी कालों में होते हैं। एक जीव की अपेक्षा तिर्यंच में मिथ्यादृष्टि गुणस्थान का जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है । एक जीव की अपेक्षा तिथंच में मिथ्यादृष्टि गुणस्थान का उत्कृष्ट काल असंख्यात पुद्गल परावर्तन परिमाणरूप अनन्तकाल है। सास्वादनसम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवर्ती तिर्यंचों का जघन्य एवं उत्कृष्ट काल ओघ के समान जानना चाहिए । असंयतसम्यः स्थानवर्ती तिर्यंच जीव तीनों कालों में होते हैं। एक जीव की अपेक्षा असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवर्ती तिर्यचों का जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट काल तीन पल्योपम है । संयतासंयत गुणस्थानवर्ती तिर्यंच सभी कालों में होते हैं। एक जीव की अपेक्षा संयतासंयत गुणस्थानवर्ती तिर्यंच का जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है । एक जीव की अपेक्षा संयतासंयत गुणस्थानवर्ती तिर्यंचों का काल कुछ कम पूर्वकोटि वर्ष परिमाण है । पंचेन्द्रिय तिर्यंच, पंचेन्द्रिय तिर्यच पर्याप्त और पंचेन्द्रिय तिर्यच योनिमतियों में मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवी जीव तीनों कालों में होते हैं। एक जीव की अपेक्षा इन तीनों प्रकार के तिर्यंचों में मिथ्यादृष्टि गुणस्थान का जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट काल पूर्वकोटि पृथक्त्व से अधिक तीन पल्योपम है । तीनों प्रकार के तिर्यंचों में सास्वादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थान और सम्यग्मिथ्यादृष्टि गुणस्थान का काल ओघ के अनुसार जानना चाहिए। इन तीनों प्रकार के तिर्यंचों में असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवी जीव तीनों कालों में पाए जाते हैं। एक जीव की अपेक्षा इन तीनों प्रकार के पंचेन्द्रिय तिर्यंचों में असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान का जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट काल अनुक्रम से तीन पल्योपम, साधिक तीन पल्योपम और कुछ कम तीन पल्योपम है । तीनों प्रकार के पंचेन्द्रिय संयतासंयत गुणस्थानवर्ती तिर्यंचों का काल ओघ के समरूप जानना चाहिए। पंचेन्द्रिय लब्धि अपर्याप्त तिर्यंच सभी कालों में पाए जाते हैं। एक जीव की अपेक्षा पंचेन्द्रिय लब्धि अपर्याप्त तिर्यंचों का काल जघन्य से क्षुद्रभवग्रहण परिमाण और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहुर्त है। मनुष्यगति में मनुष्य, पर्याप्त मनुष्य और मनुष्यनियों में मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवी जीव तीनों कालों में होते हैं। एक जीव की अपेक्षा इन तीनों प्रकार के मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवी मनुष्यों का जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट काल पूर्वकोटि पृथक्त्व से अधिक तीन पल्योपम परिमाण है । इन तीनों प्रकार के मनुष्यों में सास्वादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थान का काल सभी जीवों की Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001733
Book TitlePrakrit evam Sanskrit Sahitya me Gunsthan ki Avadharana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarshankalashreeji
PublisherRajrajendra Prakashan Trust Mohankheda MP
Publication Year2007
Total Pages566
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, Soul, & Spiritual
File Size20 MB
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