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________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा...... तृतीय अध्याय......{119} अपेक्षा, जघन्य से एक समय है । इन तीन प्रकार के मनुष्यों में सास्वादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थान का सभी जीवों की अपेक्षा, उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है । इन तीन प्रकार के सास्वादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवी मनुष्यों में एक जीव की अपेक्षा जघन्य काल एक समय है । इन तीनों प्रकार के सास्वादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवी मनुष्यों में एक जीव की अपेक्षा उत्कृष्ट काल छह आवलि परिमाण है। तीनों प्रकार के सम्यग्मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवर्ती मनुष्यों में सभी जीवों की अपेक्षा, इस गुणस्थान का जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है। इन तीनों प्रकार के सम्यग्मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवी मनुष्यों में इस गुणस्थान का उत्कृष्ट काल भी अन्तर्मुहूर्त है । इन तीनों प्रकार के सम्यग्मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवी मनुष्यों में इस गुणस्थान का एक जीव की अपेक्षा जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है । इन तीनों प्रकार के सम्यग्मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवी मनुष्यों में इस गुणस्थान का एक जीव की अपेक्षा उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है । ये तीनों प्रकार के असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवी मनुष्य, सभी जीवों की अपेक्षा, सभी कालों में होते हैं। एक जीव की अपेक्षा से इन तीनों प्रकार के असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवर्ती मनुष्यों में इस गुणस्थान का जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है । एक जीव की अपेक्षा से इन तीनों प्रकार के असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवर्ती मनुष्यों में इस गुणस्थान का उत्कृष्ट काल अनुक्रम से तीन पल्योपम, साधिक तीन पल्योपम और कुछ कम तीन पल्योपम होता है। संयतासंयत गुणस्थान से अयोगीकेवली गुणस्थान तक प्रत्येक गुणस्थानवर्ती उपर्युक्त तीनों प्रकार के मनुष्यों में इन सभी गुणस्थानों का जघन्य और उत्कृष्ट काल सामान्य के अनुसार ही जानना चाहिए। लब्धि अपर्याप्त मनुष्यों में सभी जीवों की अपेक्षा से इन गुणस्थानों का जघन्य काल क्षुद्रभवग्रहण परिमाण होता है । लब्धि अपर्याप्त मनुष्यों में इन गुणस्थानों का उत्कृष्ट काल सभी जीवों की अपेक्षा, से पल्योपम के असंख्यातवें भाग परिमाण है । लब्धि अपर्याप्त मनुष्यों में इन गुणस्थानों का, एक जीव की अपेक्षा से जघन्य काल क्षुद्रभवग्रहण परिमाण और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त देवगति में देवों में मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवी जीव, सभी जीवों की अपेक्षा से तीनों कालों में होते हैं। एक जीव की अपेक्षा मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवर्ती देव में इस गुणस्थान का जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त उत्कृष्ट काल इकतीस सागरोपम है । सास्वादनसम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवर्ती देवों में इन दोनों गुणस्थानों का काल सामान्य कथन के समरूप जानना चाहिए। असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवर्ती देव सभी जीवों की अपेक्षा, सभी कालों में होते हैं। एक जीव की अपेक्षा से असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवर्ती देवों में इस गुणस्थान का जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट काल तेंतीस सागरोपम है। भवनवासी देवों से लेकर सहस्रार कल्पवासी देवों में मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवर्ती और असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवर्ती देव, सभी जीवों की अपेक्षा, तीनों कालों में होते हैं। एक जीव की अपेक्षा भवनवासी देवों से लेकर सहस्रार तक के मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवर्ती और असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवर्ती देवों में इन दोनों गुणस्थानों का जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है । इन सभी मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवर्ती और असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवर्ती देवों में इस गुणस्थान का उत्कृष्ट काल अनुक्रम से साधिक एक सागरोपम, साधिक एक पल्योपम, साधिक दो सागरोपम, साधिक सात सागरोपम, साधिक दस सागरोपम, साधिक चौदह सागरोपम, साधिक सोलह सागरोपम और साधिक अठारह सागरोपम है। भवनवासियों से लेकर सहस्रार कल्प तक के सास्वादनसम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवर्ती देवों में इन गुणस्थानों का काल सामान्य कथन के समरूप ही जानना चाहिए । आनत - प्राणत कल्प से लेकर नव ग्रैवेयक तक विमानवासी देवों में मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवर्ती और असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवर्ती देव, सभी जीवों की अपेक्षा, सभी कालों में होते हैं। एक जीव की अपेक्षा से आनत और प्राणत कल्प से लेकर नव ग्रैवेयक तक के विमानवासी मिथ्यादृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवर्ती देवों में इन दोनों गुणस्थान का जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है। इन विमानवासी देवों में इन गुणस्थानों का उत्कृष्ट काल अनुक्रम से बीस, बाईस, तेईस, चौवीस, पच्चीस, छब्बीस, सत्ताईस, अठाईस, उनतीस, तीस और इकतीस सागरोपम है । इन ग्यारह स्थानों के सास्वादनसम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवर्ती देवों में इन गुणस्थानों का काल सामान्य कथन के अनुरूप ही जानना चाहिए। अनुदिशविमानवासी देवों में तथा विजय, वैजयन्त, जयन्त और अपराजित-इन चार अनुत्तर विमानवासी देवों में, असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवर्ती देव, सभी जीवों की अपेक्षा, सभी कालों में होते हैं। नौ अनुदिश विमानों में एक जीव की अपेक्षा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001733
Book TitlePrakrit evam Sanskrit Sahitya me Gunsthan ki Avadharana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarshankalashreeji
PublisherRajrajendra Prakashan Trust Mohankheda MP
Publication Year2007
Total Pages566
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, Soul, & Spiritual
File Size20 MB
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