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प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा......
पंचम अध्याय........{397} सूक्ष्म, पर्याप्त, अपर्याप्त, प्रत्येक, साधारण, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, दुर्भग, दुःस्वर, अनादेय, अयशःकीर्ति, निर्माण, नीचगोत्र-इन छासठ प्रकृतियों का उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवी जीव करता है । इसप्रकार इस गाथा में कही गई और नहीं कही गई एक सौ बीस कर्मप्रकृतियों के उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध का कारण पूर्व में कहे अनुसार उत्कृष्टयोग आदि जानना चाहिए।३७१
इसके पश्चात् गोम्मटसार के द्वितीय बन्धोदयसत्वाधिकार में गाथा क्रमांक २६१ से लेकर २८५ तक, पच्चीस गाथाओं में विभिन्न गुणस्थानों में किन-किन कर्मप्रकृतियों का उदय रहता है, किन कर्मप्रकृतियों का उदयविच्छेद रहता है, किन कर्मप्रकृतियों की उदीरणा होती है, किनकी उदीरणा का विच्छेद होता है आदि की विस्तृत चर्चा उपलब्ध होती है । यह समस्त चर्चा भी पंचसंग्रह
और कर्मस्तव नामक द्वितीय कर्मग्रन्थ में विस्तार से वर्णित है, जिसका उल्लेख हम यथाप्रसंग कर चके हैं. में पिष्ट-पेषण के भय से विस्तृत चर्चा में न जाकर, मात्र उदयव्युच्छिति के सम्बन्ध में गोम्मटसार में जो मतान्तर का निर्देश किया गया है, उसका कथन करके, उस चर्चा को यहीं विराम देंगे । गोम्मटसार में उदय और उदय विच्छेद के सन्दर्भ में सामान्य अवधारणा से आचार्य भूतबली का क्या मतभेद है, इसकी चर्चा की गई है । इसमें बताया गया है कि जहाँ पूर्व परम्परा के अनुसार मिथ्यात्व गुणस्थान में दस कर्मप्रकृतियों का और सासादन गुणस्थान में चार कर्मप्रकृतियों का उदय विच्छेद कहा गया है, वहीं भूतबली के अनुसार मिथ्यात्व गुणस्थान में पांच कर्मप्रकृतियों का और सास्वादन गुणस्थान में दस कर्मप्रकृतियों का उदय विच्छेद कहा गया है । पूर्वपक्षानुसार एकेन्द्रिय, स्थावर, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय का उदय मिथ्यादृष्टि गुणस्थान में होता है, सासादन गुणस्थान में नहीं होता है, जबकि यहाँ सासादन गुणस्थान में उनका उदय माना है । यह अन्तर दृष्टव्य है । इसप्रकार गोम्मटसार में इस चर्चा के प्रसंग में सामान्य परम्परा और भूतबली के मन्तव्य के अन्तर को स्पष्ट किया गया है । गोम्मटसार के इस विवचेन का यही वैशिष्ट्य है । इससे यह फलित होता है कि पंच संग्रह आदि की मान्यता में और षट्खण्डागम की मान्यता में इस प्रश्न को लेकर कुछ अन्तर है । गोम्मटसार के कर्ता आचार्य नेमिचन्द्र ने इस अन्तर को स्पष्ट करने का प्रयास किया है । शेष चर्चा पंचसंग्रह और द्वितीय कर्मग्रन्थ के समान होने से यहाँ हम उनके विस्तार में जाना नहीं चाहेंगे।
गोम्मटसार के कर्मकाण्ड विभाग के द्वितीय बन्धोदयसत्वाधिकार में उदय की चर्चा के पश्चात् विभिन्न गुणस्थानों में विभिन्न कर्मप्रकृतियों की सत्ता के सम्बन्ध में गाथा क्रमांक ३३३ से ३४२ में विचार हुआ है। सत्ता की दृष्टि से भी यहाँ तीन प्रकार से विचार किया गया है । किस गुणस्थान में किन कर्मप्रकृतियों की सत्ता होती है, किन कर्मप्रकृतियों की सत्ता नहीं होती है और किन कर्मप्रकृतियों की सत्ता का विच्छेद होता है । यह चर्चा भी पंचसंग्रह तथा द्वितीय कर्मग्रन्थ में की जा चुकी है, अतः उसकी पुनरावृत्ति आवश्यक नहीं है । सामान्य दृष्टि से हमें दोनों में कोई विशेष अन्तर परिलक्षित नहीं होता है । इसप्रकार हम देखते है कि गोम्मटसार के कर्मकाण्ड में बन्धोदयसत्वाधिकार नामक द्वितीय अधिकार में विभिन्न गुणस्थानों में किन कर्मप्रकृतियों का बन्ध होता है, किन कर्मप्रकृतियों का बन्ध नहीं होता है और किन कर्मप्रकृतियों का बन्धविच्छेद होता है, किन कर्मप्रकृतियों का उदय रहता है, किन कर्मप्रकृतियों का अनुदय रहता है और किन कर्मप्रकृतियों का उदय विच्छेद होता है, इसका उल्लेख है । इसी क्रम में आगे उदीरणा, अनूदीरणा, उदीरणाविच्छेद तथा सत्व, असत्व और सत्वविच्छेद की भी चर्चा है । इस समग्र चर्चा में गोम्मटसार के आचार्य नेमिचन्द्र ने पंचसंग्रह और षट्खण्डागम को ही विशेष आधार बनाया है, किन्तु जहाँ पंचसंग्रह और षट्खण्डागम की मान्यता में उन्हें अन्तर लगा, उसका भी निर्देश किया है । यथाप्रसंग पंचसंग्रह और षट्खण्डागम की मान्यताओं के अन्तर का स्पष्टीकरण यह गोम्मटसार की विशेषता है।
गोम्मटसार के तृतीय सत्वस्थानभंगाधिकार में हमें गुणस्थान सम्बन्धी चर्चा विस्तार से उपलब्ध होती है । इस अधिकार में गाथा क्रमांक ३५८ से लेकर ३६७ तक कुल ४० गाथाएँ हैं । यहाँ हमें एक महत्वपूर्ण बात यह परिलक्षित होती है कि जहाँ द्वितीय बन्धोदयसत्वाधिकार की अन्तिम प्रशस्ति में आचार्य नेमिचन्द्रजी ने स्वयं अपने नाम का निर्देश किया है वहाँ सत्वस्थानभंगाधिकार
३७१ गोम्मटसार, कर्मकाण्ड, भाग १, गाथा क्र. २/२-२/३, -२१४ द्वितीय बन्धोदयसत्वाधिकार ।
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