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प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा.....
सप्तम अध्याय........{430}
क| गुणस्थान
बन्धस्थान
उदयस्थान
सत्तास्थान
मिथ्यात्व
| २३,२५,२६,२८,२६,३०
२१,२४,२५,२६,२७, २८,२६,३०
E२,८६,८८,८६,८०,७८
| सास्वादन | २८,२६,३० ,
२१,२४,२५,२६,२६, ३०,३१
६२, ८८ ६२, ६८
मिश्र
| २८,२६
२६,३०,३१
२१,२५,२६,२७,२८, २६,३०,३१
६२,८८,८६,८८
अविरत
| २८,२६,३० सम्यग्दृष्टि ५ | देशविरति | २८,२६
२५,२७,२८,२६,३०, ३१
६३,६२,८६,८८
प्रमत्तसंयत | २८,२६
२५,२७,२८,२६,३१
६३,६२,८६,८८
२६, ३०
७ अप्रमत्तसंयत | २८,२६,३०,३१ ८ अपूर्वकरण २८,२६,३०,३१,१
६३,६२,८६,८८ ६३,६२,८६,८८
६ अनिवृत्तिकरण| १
६३,६२,८६,८८,८०,७६,७६,७५
१० सूक्ष्मसंपराय १
६३,६२,८६,८८,८०,७८,७६,७५-८
११ उपशान्तमोह 0 १२/ क्षीणमोह |
६३,६२,८६,८८,८०,७६,७६,७५ |६३,६२,८६,८८,८०,७६,७६,७५
३०
२०,२१,२६,२७,२८, २६,३०,३१
८०,७६,७६,७५
१३ सयोगी केवली.
अयोगी 700 केवली ।
८०,७६,७६,७५, ६,८
त्रा देवचन्द्रकृत विचारसारप्रकरण अपरनाम गुणस्थान शतक k
प्राकृत भाषा में संस्कृत टीका एवं मसगुर्जर टब्बे के साथ रचित गुणस्थान सम्बन्धी स्वतन्त्र ग्रन्थों में श्रीमद् देवचन्द्रकृत विचारसार का महत्वपूर्ण स्थान है । यद्यपि ग्रन्थ का नाम विचारसार प्रकरण है, किन्तु इसके प्रथम खण्ड जिसका मंगलाचरण
और अन्तिम प्रशस्ति स्वतन्त्र रूप से है, में इसे 'गुणस्थान शतक' - ऐसा नाम दिया गया है । इसी कारण हमने इसे गुणस्थान सम्बन्धी स्वतन्त्र ग्रन्थों में स्थान दिया है । कालक्रम की दृष्टि से यह कृति पूर्व में वर्णित गुणस्थानक्रमारोह से परवर्ती है, किन्तु गुणस्थान सिद्धान्त के विवचेन की दृष्टि से यह अधिक विस्तृत एवं व्यापक है । ग्रन्थ का वैशिष्ट्य यह है कि इसमें मूल गाथाएं प्राकृत भाषा में दी गई हैं, उनकी टीका संस्कृत भाषा में की गई है और उस पर पुनः मरूगुर्जर में टब्बा या अर्थ लिखा गया है। मूल प्राकृत गाथाओं के साथ-साथ संस्कृत टीका और मरूगुर्जर टब्बा भी स्वोपज्ञ है । श्रीमद् देवचन्द्रजी ने ग्रन्थ की अन्तिम प्रशस्ति में इस रचना के आधारभूत ग्रन्थों का उल्लेख किया है । वे लिखते हैं कि अग्राहणी पूर्व से उद्धृत तथा श्रीमद् भद्रबाहुस्वामीकृत कर्मप्रकृति, उसकी देवर्द्धिगणिकृत चूर्णि, मलयगिरिकृत टीका, महर्षि चन्द्रर्षिकृत पंचसंग्रह, शिवशर्मसूरिकृत
४१७ विचारसार : लेखकः आ. देवचन्दजी, प्रकाशनः श्री अध्यात्मज्ञान प्रसार मंडल - पाढरा
वी.नि.सं. २४४५, वि.सं. १९७५
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