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________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा...... चतुर्थ अध्याय........{258} उपशान्तमोह, क्षीणमोह, और जिन (केवली) शब्दों का उल्लेख है; इस उल्लेख में गुणस्थान से सम्बन्धित नामों का उल्लेख हुआ है, किन्तु यह सूत्र जिन अवस्थाओं का उल्लेख करता है, वे गुणस्थान की अवधारणा से आंशिक रूप से भिन्न हैं । इस सूत्र में मिथ्यादृष्टि, सास्वादनसम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टि का कोई उल्लेख नहीं है । इसी प्रकार इस सूत्र में प्रमत्तसंयत और अप्रमत्तसंयत के ऐसे दो विभाग भी नहीं किए गए हैं । यद्यपि अनन्तानुबन्धी वियोजक को अप्रमत्तसंयत नामक गुणस्थान से जोड़ा जाता है, किन्तु मूलग्रन्थ और भाष्य में इस सन्दर्भ में कोई उल्लेख नही हैं । इसी प्रकार उपशमक और क्षपक के उल्लेख में अपूर्वकरण, अनिवृत्तिकरण और सूक्ष्मसम्पराय का समावेश किया जा सकता है, किन्तु न तो मूलसूत्र में और न ही भाष्य में और न ही सिद्धसेनगणि की प्रस्तुत सत्र की टीका में इनका कहीं निर्देश है । सिद्धसेनगणि ने इस चर्चा में मात्र यही बताया है कि सम्यग्दृष्टि की अपेक्षा श्रावक, श्रावक की अपेक्षा विरत, विरत की अपेक्षा अनन्तानुबन्धी वियोजक आदि अवस्थाओं में अनन्तगुणा निर्जरा अधिक होती है । इसी क्रम में नवें अध्याय के अड़तालीसवें सूत्र की टीका में पांच प्रकार के निग्रंथों का उल्लेख है । पुलाक, बकुश, कुशील, निग्रंथ और स्नातक-ऐसे पांच प्रकार हैं । मूल सूत्र एवं भाष्य में तो इस प्रसंग में गुणस्थानों का कहीं कोई निर्देश नहीं है, किन्तु निर्ग्रन्थ शब्द की टीका में सिद्धसेनगणि ने एकादश और द्वादश गुणस्थानवर्ती-ऐसा स्पष्ट उल्लेख किया है। इसी क्रम में आगे स्नातक शब्द की टीका में त्रयोदश गुणस्थानवर्ती सयोगी केवली तथा शैलेशी अवस्था को प्राप्त अयोगी केवली का उल्लेख किया है । यहाँ गुणस्थान शब्द के प्रयोग से यह स्पष्ट हो जाता है कि सिद्धसेनगणि ने पाँच प्रकार के निर्ग्रन्थों में गुणस्थान की अवधारणा को अवतरित करने का प्रयास किया है । इसी क्रम में, किस प्रकार के निर्ग्रन्थ में कौनसी लेश्या होती है, इसकी चर्चा है। इस चर्चा में यह बताया गया है कि पुलाक में तीन शुभ लेश्याएँ होती है । बकुश में छहों लेश्याएँ होती हैं । बकुश और प्रतिसेवना कुशील में छहों लेश्याएँ होती हैं। सूक्ष्मसंपराय निर्ग्रन्थ और स्नातक में मात्र शुक्ललेश्या होती है । इसमें भी अयोगी केवली अवस्था में लेश्या का अभाव होता है । यहाँ यद्यपि सूक्ष्मसंपराय, केवली, अयोगी केवली का उल्लेख हुआ है, किन्तु यह उल्लेख गुणस्थानों से सम्बन्धित है अथवा एक सामान्य निर्देश है, यह कहना कठिन है । तत्त्वार्थसूत्र के दसवें अध्याय में मोक्ष के स्वरूप का विवेचन है । इस दसवें अध्याय के तीसरे सूत्र में यह कहा गया है कि सम्पूर्ण कर्मों का क्षय होने पर मोक्ष की प्राप्ति होती है । यहाँ मूलसूत्र और भाष्य में तो गुणस्थानों की कोई चर्चा नहीं है, किन्तु इस सूत्र की टीका में सिद्धसेनगणि ने, किस गुणस्थान में कितनी कर्मप्रकृतियों का क्षय होता है, इसकी विस्तार से चर्चा की है । वे लिखते हैं कि अविरतसम्यग्दृष्टि, देशयति (देशविरत), प्रमत्तसंयत और अप्रमत्तसंयत गुणस्थानों में अनन्तानुबन्धी कषाय चतुष्क, मिथ्यात्वमोह, मिश्रमोह, और सम्यक्त्वमोह-इन सात कर्मप्रकृतियों का क्षय होता है । अनिवृत्तिकरण गुणस्थान में मोहनीय कर्म की बीस, नामकर्म की तेरह और दर्शनावरणीय की तीन कर्मप्रकृतियों का क्षय हो जाता है । सूक्ष्मसम्पराय गुणस्थान में सूक्ष्म लोभ, हास्यषट्क और तीन वेद का क्षय हो जाता है । क्षीणकषाय गुणस्थान में, दर्शनावरणीय कर्म की, निद्रा और प्रचला नामक दो प्रकृतियों का क्षय हो जाता है । इसके अन्तिम समय में ज्ञानावरणीय की पाँच, दर्शनावरणीय की चार और अन्तराय की पाँच-इन चौदह प्रकृतियों का क्षय होता है। अयोगी केवली गुणस्थान के द्विचरम समय में नामकर्म की पैंतालीस कर्मप्रकृतियों का क्षय होता है तथा अयोगी केवली गुणस्थान के चरम समय में सम्पूर्ण कर्मप्रकृतियों का क्षय हो जाता है । इस चर्चा में यद्यपि मिथ्यात्व गुणस्थान, सासादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थान, सम्यग्मिथ्यादृष्टि गुणस्थान, अपूर्वकरण गुणस्थान और उपशान्तमोह गुणस्थान की कोई चर्चा हमें दृष्टिगत नहीं होती है, फिर भी कौनसी प्रकृति किस गुणस्थान में क्षय होती है, इसकी विस्तृत चर्चा से यह बात स्पष्ट हो जाती है कि सिद्धसेनगणि ने दसवें अध्याय के इस तृतीय सूत्र की टीका में कर्मप्रकृतियों के क्षय की अपेक्षा से गुणस्थानों की चर्चा की है । पुनः तत्त्वार्थसूत्र के दसवें अध्याय के सातवें सूत्र में सिद्धों के अनुयोगद्वारों की चर्चा करते हुए अविरतसम्यग्दृष्टि, सम्यग्दृष्टि, संयतासंयत (देशविरत), प्रमत्तसंयत, अप्रमत्तसंयत, छद्मस्थवीतराग और केवली अवस्थाओं का निर्देश हुआ है । यहाँ Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001733
Book TitlePrakrit evam Sanskrit Sahitya me Gunsthan ki Avadharana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarshankalashreeji
PublisherRajrajendra Prakashan Trust Mohankheda MP
Publication Year2007
Total Pages566
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, Soul, & Spiritual
File Size20 MB
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