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प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा......
चतुर्थ अध्याय........{257}
सूक्ष्मसम्पराय नामक दसवें गुणस्थान को प्राप्त होता है । यहाँ सूक्ष्मसम्पराय संयमी को दसवें गुणस्थानवर्ती कहना इस बात को स्पष्ट सिद्ध करता है कि सिद्धसेनगणि गुणस्थान की अवधारणा से पूर्णतः परिचित थे । इसी क्रम में आगे उपशान्तकषाय और क्षीणकषाय को क्रमशः एकादश और द्वादश गुणस्थानवर्ती कहा गया है । इससे भी यह सिद्ध होता है कि उन्होंने पांच प्रकार के चारित्रों में गुणस्थानों का अवतरण किया है । तत्त्वार्थसूत्र के नवें अध्याय का बाईसवाँ सूत्र तौ प्रकार के प्रायश्चितों से सम्बन्धित है । इस सूत्र की टीका में अप्रमत्त शब्द का उल्लेख आया है, किन्तु इस शब्द के उल्लेख मात्र से यह निर्णय करना कठिन है कि यहाँ सिद्धसेनगणिगणस्थान विशेष की चर्चा कर रहे हैं । इसके पश्चात तत्त्वार्थसत्र के नवें अध्याय के उनतीसवें सत्र से लेकर छयालीसवें सूत्र तक चार ध्यानों का विस्तृत विवरण उपलब्ध होता है। इन सूत्रों की टीका में सिद्धसेनगणि ने गुणस्थानों की अपेक्षा से विस्तृत विवरण प्रस्तुत किया है । पैंतीसवें सूत्र की टीका में आर्तध्यान के स्वामी की चर्चा करते हुए मूल सूत्र में तो केवल अविरत, देशविरत और प्रमत्तसंयत-इन तीन अवस्थाओं का उल्लेख है, किन्तु सिद्धसेनगणि ने इन्हें क्रमशः चतुर्थ, पंचम
और षष्ठ गुणस्थानवर्ती कहा है । मात्र यही नहीं उन्होंने इन तीनों अवस्थाओं का भी विस्तृत विवरण प्रस्तुत किया है । इसी क्रम में आगे सैंतीसवें सूत्र धर्मध्यान के स्वामी की चर्चा के प्रसंग में अप्रमत्तसंयत का उल्लेख हुआ है । यद्यपि यहाँ अप्रमत्तसंयत अवस्था के निर्देश में गुणस्थान शब्द का स्पष्ट उल्लेख नहीं है, फिर भी यहाँ सप्तम गुणस्थान का निर्देश स्वीकार करने में कोई आपत्ति नहीं है । इसी सूत्र की टीका में अविरत, देशविरत और प्रमत्तसंयत का भी उल्लेख आया है, तथा इन तीनों अवस्थाओं में रौद्रध्यान की अवस्था को भी स्वीकार किया गया है । इसी विवेचन के प्रसंग में अविरतसम्यग्दृष्टि, देशविरत, प्रमत्तसंयत और अप्रमत्तसंयत; उपशमश्रेणी या क्षपकश्रेणी के अभिमुख होकर धर्मध्यान के स्वामी माने गए हैं । इसके पश्चात् तत्त्वार्थसूत्र के नवें अध्याय के अड़तीसवें सूत्र में उपशान्तकषाय और क्षीणकषाय को ध्यान होता है, इसका उल्लेख है । इसकी टीका में सिद्धसेनगणि ने स्पष्ट रूप से उपशान्तकषाय को एकादश गुणस्थानवर्ती और क्षीणकषाय को द्वादश गुणस्थानवर्ती कहा है । मात्र यही नहीं; इस चर्चा में उसके पूर्व के गुणस्थानों का भी उल्लेख हुआ है । कहा गया है कि अप्रमत्तसंयत गुणस्थान में कर्मों की विशुद्धि करती हुई आत्मा अपूर्वकरण गुणस्थान में प्रवेश करती है । वहाँ स्थितिघात, रसघात, गुणश्रेणी, गुणसंक्रमण आदि को करती हुई अनिवृत्तिकरण गुणस्थान को प्राप्त होती है। इस गुणस्थान में बादरसम्परायकषाय की सत्ता होने से इसे अनिवृत्तिबादरकषाय नाम भी दिया गया है । इसके पश्चात् सूक्ष्म लोभ की सत्ता अवशिष्ट रहने पर साधक को सूक्ष्मसम्पराय संयत कहा जाता है । इसी सूत्र की टीका के अन्त में यह बताया गया है कि उपशान्तकषायवीतरागछद्मस्थ और क्षीणकषायवीतरागछद्मस्थ को शुक्लध्यान की प्राप्ति होती है । अग्रिम सूत्र में शुक्लध्यान के चार चरणों का उल्लेख करते हुए क्रमशः उपशान्तकषायवीतरागछद्मस्थ पृथकत्ववितर्कसविचार नामक शुक्लध्यान के प्रथम चरण की प्राप्ति होती है । इसी क्रम में गुणस्थानवर्ती आत्मा को एकत्वअवितर्कअविचार नामक शुक्लध्यान के द्वितीय चरण की प्राप्ति होती है । शुक्लध्यान के अग्रिम दो चरण केवली को होते हैं, छद्मस्थ को नहीं, ऐसा मूलसूत्र एवं भाष्य में उल्लेख है; किन्तु सिद्धसेनगणि ने यहाँ केवली शब्द की टीका में क्रमशः तेरहवें और चौदहवें गुणस्थानवर्ती कहा है
और इस क्रम में यह माना है कि त्रयोदश गुणस्थानवर्ती सयोगी केवली को सूक्ष्मक्रिया नामक शुक्लध्यान के तृतीय चरण की और चतुर्दश गुणस्थानवर्ती अयोगी केवली को व्युपरतक्रिया नामक शुक्लध्यान के चतुर्थ चरण की प्राप्ति होती है। इसप्रकार हम देखते हैं कि सिद्धसेनगणि ने तत्त्वार्थसूत्र में प्रस्तुत ध्यान सम्बन्धी विचारणा का टीका में स्पष्ट रूप से गुणस्थानों का अवतरण किया
तत्त्वार्थसूत्र के नवें अध्याय के सैंतालीसवें सूत्र में सम्यग्दृष्टि, श्रावक, विरत, अनन्तानुबन्धी वियोजक (चारित्र) दर्शनमोह क्षपक, चारित्रमोह उपशमक, मोहनीय उपशमक, उपशान्तमोह (चारित्र) मोहनीय क्षपक, क्षीणमोह एवं जिन ऐसी दस गुणश्रेणियों या आध्यात्मिक विकास की स्थितियों की चर्चा है । यह स्पष्ट है कि इसमें सम्यग्दृष्टि श्रावक (देशविरत), विरत (प्रमत्तसंयत),
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