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प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा..
चतुर्थ अध्याय........{256}
ने यहाँ सर्वप्रथम इन बन्ध हेतुओं में चतुर्दश गुणस्थानों का स्पष्ट रूप से अवतरण किया है । वे लिखते है कि मिथ्यादृष्टि गुणस्थान में आहारकद्विक को छोड़कर सभी कर्मप्रकृतियां और सभी बन्धहेतु सम्भव होते हैं । पुनः सास्वादन गुणस्थान, सम्यग्मिथ्यादृष्टि गुणस्थान और अविरतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान-इन तीन गुणस्थानों में मिथ्यादर्शन को छोड़कर शेष चार बन्धहेतु सम्भव होते हैं । कर्मप्रकृतियों के बन्ध का निर्देश करते हुए यह भी कहा गया है कि इन सभी गुणस्थानों में आहारकद्विक और सम्यग्मिथ्यादृष्टि गुणस्थान में मिश्र एवं कार्मण योग सम्भव नहीं होते हैं । पुनः आगे वे लिखते है कि अविरतसम्यग्दृष्टि तथा विरताविरतसम्यग्दृष्टि-इन दो गुणस्थानों में अनन्तानुबन्धी कषाय का बन्ध नहीं होता है । पांचवें विरताविरतसम्यग्दृष्टि में संयमासंयम के अतिरिक्त प्रमाद, कषाय और योग-ये तीन बन्धस्थान होते हैं । इस अवस्था में अप्रत्याख्यानीयकषाय चतुष्क, औदारिकमिश्र, कार्मणयोग तथा आहारकद्विक कर्मप्रकृतियों का उदय नहीं होता है, अतः इनका बन्ध भी नहीं होगा । पुनः प्रमत्तसंयत, अप्रमत्तसंयत, अपूर्वकरण, अनिवृत्तिबादरसम्पराय और सूक्ष्मसम्पराय-इन पांच गुणस्थानों में; अपूर्वकरण, अनिवृत्तिबादरसम्पराय और सूक्ष्मसम्पराय-इन तीन गुणस्थानों में; उपशमक और क्षपक इन दोनों श्रेणियों में, कषाय और योग-ये दो ही बन्धहेतु रहते हैं । प्रमत्तसंयत गुणस्थान में संज्वलनकषाय चतुष्क और नव नोकषाय होते हैं । साथ ही पूर्वोक्त तीनों योग भी होते हैं । (प्रमत्तसंयत गुणस्थान में कषाय और योग के अतिरिक्त प्रमाद की भी सत्ता बनी रहती है, अतः वहाँ तीन बन्ध हेतु मानना चाहिए।) प्रमत्तसंयत गुणस्थान में तेरह कषाय और तेरह ही योग बन्धहेतु माने गए हैं । अप्रमत्तसंयत गुणस्थान में वैक्रियमिश्र, आहारकमिश्र-इन दो योगों को छोड़कर शेष ग्यारह योग बन्धहेतु के रूप में स्वीकार किए गए हैं । अपूर्वकरण में प्रविष्ट आत्मा को आहारकद्विक का वर्णन करके शेष नौ योग, कषाय की अपेक्षा से तेरह कषाय बन्धहेतु के रूप में माने जाते हैं। अनिवृत्तिबादरसम्पराय गुणस्थान में नौ योग, संज्वलनकषाय चतुष्क और वेदत्रिक-ये बन्ध के हेतु होते हैं । सूक्ष्मसम्पराय गुणस्थान में नौ योग और संज्वलनलोभ बन्धहेतु रहते हैं । उपशान्तकषाय, क्षीणकषाय और सयोगी केवली में केवल योग ही बन्ध हेतु के रूप में माना जाता है । उपशान्तकषाय और क्षीणकषाय-इन दोनों गुणस्थानों में नौ-नौ योग बन्धहेतु माने गए हैं। सयोगी केवली गुणस्थान में केवल सात योग ही बन्धहेतु के रूप में होते हैं।
_सिद्धसेनगणि ने तत्त्वार्थसूत्र के नवें अध्याय के दसवें सूत्र की टीका में स्पष्ट रूप से गुणस्थान शब्द का उल्लेख किया है। प्रस्तुत सूत्र परिषहों से सम्बन्धित है । मूल सूत्र में यह कहा गया है कि सूक्ष्मसम्पराय गुणस्थानवी जीवों को चौदह परिषह होते हैं । इसकी टीका में सिद्धसेनगणि लिखते हैं कि नवें गुणस्थान में लोभादि स्थूल कषायों का क्षय या उपशम करके दसवें गुणस्थान में आत्मा सूक्ष्म लोभ के परमाणु का अनुभव या वेदन करती है । सूक्ष्म लोभ को ही सूक्ष्मसम्पराय कहा गया है । इस गुणस्थानवर्ती उपशमक या क्षपक आत्मा चतुर्दश परिषहों का अनुभव करती है । सिद्धसेनगणि का यह भी कहना है कि मूल सूत्र में जो छद्मस्थवीतराग शब्द आया है, उससे दसवें गुणस्थानवर्ती संयत का ग्रहण करना चाहिए । पुनः नवें अध्याय के ही ग्यारहवें सूत्र में जिन शब्द की टीका में अन्त्य और उपान्त्य गुणस्थानवर्ती-ऐसा उल्लेख किया है । इससे स्पष्ट है कि सिद्धसेनगणि का संकेत क्रमशः तेरहवें और चौदहवें गुणस्थान से है । इसी क्रम में नवें अध्याय के बारहवें सूत्र की टीका में बादरसम्पराय अवस्था में बाईस परिषह होते हैं, यह कहकर अन्त में वे लिखते हैं कि यह गुणस्थानों में संभावित परिषहों का उल्लेख हुआ। (उक्ता गुणस्थानेषु यथासम्भव परिषहाः) उनके इस कथन से यह स्पष्ट हो जाता है कि यहाँ भी गुणस्थानों के सन्दर्भ में परिषहों की चर्चा है । इसी नवें अध्याय के अठारहवें सूत्र में पांच प्रकार के चारित्रों की चर्चा है । इस सूत्र की टीका में सिद्धसेनगणि ने पांचों प्रकार के चारित्रों की तथा औपशमिक और क्षपक श्रेणियों की विस्तृत चर्चा की है । इस चर्चा के प्रसंग में अविरत, देशविरत, प्रमत्तविरत
और अप्रमत्तविरत-इन चार गुणस्थानों का उल्लेख किया है । यह बताया गया है कि अप्रमत्तसंयत अवस्था में श्रेणी को प्रारम्भ करके सर्वप्रथम अनन्तानुबन्धी कषाय चतुष्क और दर्शनत्रिक का क्षय करके, क्रमपूर्वक कर्मप्रकृतियों का क्षय करते हुए,
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