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प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा.....
चतुर्थ अध्याय........{232} देवायु का उदय और उदीरणा भी चतुर्थ गुणस्थान तक ही होती है, आगे के गुणस्थानों में नहीं । मरण के समय अन्तिम आवलि काल में देवायु और नरकायु का उदय और उदीरणा नहीं होती है । चार आनुपूर्वियों का उदय और उदीरणा प्रथम, द्वितीय और चतुर्थ गुणस्थान में होती है, अन्य किसी गुणस्थान में नहीं होती है । प्रत्याख्यानावरण चतुष्क, तिर्यंचगति, उद्योतनामकर्म और नीचगोत्र-इन सात कर्मप्रकृतियों का उदय और उदीरणा संयतासंयत गुणस्थान तक होती है, आगे के गुणस्थान में नहीं होती है। तिर्यंच आयुष्य का उदय और उदीरणा पांचवें गुणस्थान तक ही होती है, किन्तु मरण के समय अन्तिम आवलि काल के शेष रहने पर उदय ही होता है, उदीरणा नहीं होती है । निद्रा-निद्रा, प्रचला-प्रचला, स्त्यानगृद्धि, सातावेदनीय और असातावेदनीय इन पांचों कर्मप्रकृतियों की उदीरणा छठे प्रमत्तसंयत गुणस्थान तक होती है, आगे के गुणस्थानों में नहीं होती है । निद्रा-निद्रा आदि तीन की उदीरणा जिसने इन्द्रिय पर्याप्ति पूर्ण कर ली है, वही करता है । ऐसा जीव यदि उत्तर शरीर की विकुर्वना करता है अथवा आहारक समुद्घात करता है, तो इन्हें करने के एक आवलिकाल पूर्व से लेकर मूल शरीर में प्रवेश होने तक इन तीन की उदीरणा नहीं होती है तथा देव, नारकी और भोगभूमियाँ जीव भी इन तीन की उदीरणा नहीं करते। आहारकद्विक का उदय और उदीरणा प्रमत्तसंयत गुणस्थान में ही होती है, अन्य किसी भी गुणस्थान में नहीं । मनुष्य आयुष्य की उदीरणा छठे गुणस्थान तक तथा उदय चौदहवें गुणस्थान तक होता है । मरण के समय अन्तिम आवलिकाल शेष रहने पर उदीरणा नहीं होती है । सम्यक्त्वमोह का उदय और उदीरणा चौथे से सातवें गुणस्थान तक वेदक सम्यग्दृष्टि को होती है । कृतकृत्य वेदक के काल में और उपशम सम्यक्त्व के उत्पत्तिकाल में एक आवलि शेष रहने पर उदय ही होता है, उदीरणा नहीं होती है । अन्तिम तीन संघयण की उदीरणा और उदय सातवें गुणस्थान तक ही होता है । हास्यादिषट्क का उदय और उदीरणा आठवें गुणस्थान तक ही होती है । विशेष यह है कि तिर्यच, मनुष्य एवं देव योनि में उत्पत्ति समय से लेकर अन्तर्मुहूर्त काल तक हास्य और रति की उदीरणा नियम से होती है । आगे भजनीय है तथा नारकी के उत्पत्ति समय से लेकर अन्तर्मुहूर्त काल तक अरति और शोक की उदीरणा नियम से होती है, इनका उदय नवे गुणस्थान के उपान्त्य भाग तक ही होता है । विशेष यह है कि जो जिस वेद के उदय से श्रेणी चढ़ता है, उसके प्रथम स्थिति में एक आवलि काल शेष रहने पर उदीरणा नहीं होती है। संज्वलन लोभ का उदय और उदीरणा दसवें गुणस्थान तक होती है । दसवें गुणस्थान के अन्तिम आवलि काल शेष रहने पर उदय होता है, उदीरणा नहीं होती है । वज्रऋषभनाराच और नाराच संघयण का उदय और उदीरणा ग्यारहवें गुणस्थान तक तथा निद्रा और प्रचला का उदय और उदीरणा दोनों बारहवें गुणस्थान में एक समय अधिक एक आवलि काल शेष रहने पर होती है।
बारहवें गुणस्थान के उपान्त्य समय तक इन दोनों का उदय ही होता है । पांच ज्ञानावरण, चार दर्शनावरण और पांच अन्तराय इन चौदह प्रकृतियों का उदय तो बारहवें गुणस्थान के अन्तिम समय तक होता है और उदीरणा बारहवें गुणस्थान में एक आवलि काल शेष रहने तक होती है । मनुष्यगति, पंचेन्द्रियजाति, औदारिक, तैजस और कार्मण शरीर, छः संस्थान, औदारिक आंगोपांग, वज्रऋषभनाराच संघयण, वर्णचतुष्क, अगुरुलघुनामकर्म, उपघातनामकर्म, उच्छ्वास नामकर्म, दोनों विहायोगति, त्रसनामकर्म, बादरनामकर्म, पर्याप्तनामकर्म, प्रत्येक शरीर नामकर्म, स्थिरनामकर्म, अस्थिरंनामकर्म, शुभनामकर्म, अशुभनामकर्म, सुभगनामकर्म, सुस्वरनामकर्म, दुःस्वरनामकर्म, आदेयनामकर्म, यशःकीर्तिनामकर्म, निर्माणनामकर्म और उच्चगोत्र-इन अड़तीस कर्मप्रकृतियों का उदय और उदीरणा तेरहवें गुणस्थान तक ही होती है । आगे चौदहवें गुणस्थान में इनकी उदीरणा नहीं होती है। तीर्थंकर नामकर्म का उदय और उदीरणा तेरहवें गुणस्थान में ही होती है।
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