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प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा......
सप्तम अध्याय........{428} इसके पश्चात् श्लोक क्रमांक ३६ से ४६ तक उपशमश्रेणी की चर्चा है। इसमें बताया गया है कि उपशमश्रेणी से आरोहण करनेवाला साधक यदि श्रेणी आरोहण के काल में ही आयुष्य पूर्ण करे, तो वह नियम से उच्च देवलोकों में ही उत्पन्न होता है । इसी क्रम में यह भी बताया गया है कि एक जीव एक भव में अधिकतम दो बार उपशमश्रेणी कर सकता है, किन्तु उसके संसार परिभ्रमण काल में अधिकतम चार बार उपशमश्रेणी सम्भव है। इसके पश्चात् श्लोक क्रमांक ४७ से ५१ तक क्षपकश्रेणी का विवेचन है । यहाँ ध्यान के सम्बन्ध में उल्लेख करते हुए यह कहा गया है कि क्षपक श्रेणी करनेवाला साधक आठवें गुणस्थान में ही शुक्लध्यान के प्रथम चरण को प्राप्त करता है।
इसी चर्चा के प्रसंग में श्लोक क्रमांक ५२ और ५३ में ध्यान करनेवाले साधकों के आसनों की चर्चा है । इसके पश्चात् श्लोक क्रमांक ५४ से ५८ तक पूरक, रेचक और कुम्भक प्राणायामों की चर्चा की गई है। इसके पश्चात् श्लोक क्रमांक ५६ में यह बताया गया है कि प्राणायाम के इस क्रम में भी क्षपकश्रेणी वाले साधक में भावों की विशद्धि ही प्रमख तत्व होता है। इसके पश्चात श्लोक क्रमांक ६१से ७६ तक शुक्लध्यान के प्रथम दो चरणों-सवितर्कसविचार और अवितर्कअविचार की विस्तृत चर्चा है। यहाँ यह बताया गया है कि ये दोनों ध्यान क्षीणमोह गुणस्थान में सम्भव होते हैं । इसी क्रम में इन गुणस्थानों में किन कर्मप्रकृतियों का विशेष क्षय होता है, इसका भी संकेत रूप उल्लेख है । उसके पश्चात् श्लोक क्रमांक ८१ और ८२ में क्षीणमोह गुणस्थानवर्ती साधक किन कर्मप्रकृतियों का क्षय करता है इसका उल्लेख किया गया है।
श्लोक क्रमांक ८३ से ६० तक सयोगीकेवली गुणस्थान की चर्चा के प्रसंग में केवलज्ञान से युक्त अर्हन्त परमात्मा के स्वरूप की चर्चा है । इसी प्रसंग में तीर्थंकर नामकर्म का उपार्जन, उसके महत्व आदि का भी उल्लेख किया गया है। उसके पश्चात् श्लोक क्रमांक ८६ से ६५ तक केवली समुद्घात के स्वरूप का विस्तृत विवेचन है । फिर श्लोक क्रमांक ६६ में यह बताया गया है कि सयोगीकेवली भगवान केवली समुद्घात से निवृत होकर शुक्ल ध्यान के तीसरे चरण सूक्ष्मक्रियानिवृत्ति नामक शुक्लध्यान में स्थित होते हैं और इसमें स्थित होकर स्थूल क्रिया से निवृत्त होते हैं । उसके पश्चात् श्लोक क्रमांक ६७ से लेकर १०३ तक सूक्ष्मक्रियानिवृत्ति नामक तीसरे शुक्ल ध्यान की चर्चा करते हुए सयोगीकेवली के द्वारा किस प्रकार से योगनिरोध किया जाता है, इसकी चर्चा उपलब्ध होती है ।
इसके पश्चात् श्लोक क्रमांक १०४ से लेकर १०६ तक अयोगीकेवली गुणस्थान के स्वरूप तथा उनके द्वारा साधित समुच्छिन्नक्रिया नामक शुक्ल ध्यान के चतुर्थ चरण का उल्लेख हुआ है। इसके क्रम में श्लोक क्रमांक १०८ से ११० तक इस प्रश्न का समाधान किया गया है कि चतुर्दश अयोगीकेवली गुणस्थानवी जीवों में सूक्ष्म काययोग होते हुए भी उन्हें अयोगी क्यों कहा जाता है ? इसके पश्चात् क्रमांक १११ से लेकर ११६ तक के श्लोकों में अयोगी केवली गुणस्थानवी जीव किन कर्मप्रकृतियों का
और किस क्रम से क्षय करता है, इसका विस्तृत उल्लेख है । कर्मप्रकृतियों के क्षय को लेकर केवल इसी गुणस्थान में इतनी विस्तृत चर्चा की गई है । इसके पश्चात् अयोगी केवली किस प्रकार सिद्धस्थान को प्राप्त होता है इसकी चर्चा श्लोक क्रमांक १२१ से १२४ तक में की गई है । श्लोक क्रमांक १२५ से लेकर १३५ तक सिद्धशीला के स्वरूप की और उसके पश्चात् मुक्ति के स्वरूप की चर्चा हुई है । अन्तिम १३६ वें श्लोक में यह कहा गया है कि रत्नशेखरसूरि ने श्रुतरूपी समुद्र में से गुणस्थानरूपी रत्नराशि को संचित कर उसे यहाँ प्रस्तुत किया है । इस उल्लेख के साथ ही रत्नशेखरसूरिकृत यह गुणस्थानक्रमारोह नामक ग्रन्थ समाप्त होता है । इस ग्रन्थ में गुणस्थानों के सम्बन्ध में जो चर्चा है, इसका वैशिष्ट्य यह है कि आचार्यों ने यहाँ गुणस्थानों के प्रसंग में आसन, प्राणायाम और विशेष रूप में ध्यान के स्वरूप की चर्चा की है।
त्रगुणस्थानक्रमारोह नामक अन्य स्वतन्त्र रचनाएँ
गुणस्थान सम्बन्धी स्वतन्त्र ग्रन्थों में पूर्व में वर्णित रत्नशेखरसूरिकृत गुणस्थानक्रमारोह के अतिरिक्त हमें गुणस्थानक्रमारोह नामक अन्य तीन ग्रन्थों की सूचना भी जिनरत्नकोष से उपलब्ध होती है । जिनरत्नकोष में द्वितीय गुणस्थानक्रमारोह के लेखक
४१० गुणस्थान क्रमारोह : लेखक विमलसूरि, जिनरत्नकोशः से उद्धरित पृ. १०६ से ।
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