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का सह सम्बन्ध भी स्पष्ट किया गया है । इस प्रकार प्रस्तुत कृति में गुणस्थानों का एक समग्र चिन्तन प्रस्तुत है, जो जैन दर्शन के गम्भीर अध्येताओं के लिए अधिक उपयोगी सिद्ध हो सकता है ।
साथ में मैं यह भी कहना चाहूँगा कि जैनदर्शन के गुणस्थान सिद्धान्त को लकर जो चर्चाएँ विविध ग्रन्थों में उपलब्ध रही है उन सबको एक स्थान पर और एक ही ग्रन्थ में समाहित करने का यह एक सुन्दर प्रयास है । आज यह जानकर अतिप्रसन्नता हो रही है कि साध्वीजी का यह महाकाय शोधप्रबन्ध अब प्रकाशित होकर जन-जन के अध्ययन के लिये सुलभ बनने जा रहा है। इससे साध्वीजी के श्रम का यथार्थ मूल्यांकन तो होगा ही, साथ ही जैन दार्शनिकों की सूक्ष्म प्रतिभा का परिचय भी विद्वानों को होगा। हमें विश्वास है कि पाठक वृन्द इस महत्वपूर्ण ग्रन्थ का न केवल वाचन करेगा, अपितु इसे पढ़कर आत्मसात भी करेगा और मोक्षमार्ग की अपनी यात्रा में विकास के अग्रिम चरणों पर अग्रसर होगा ।
हम यह आशा करते हैं कि साध्वी दर्शनकलाश्रीजी भविष्य में भी ऐसी कृतियाँ को प्रणयन कर जैन साहित्य के क्षेत्र में अपना अवदान प्रदान करती रहेगी।
श्रावणी पूर्णिमा विक्रम संवत् २०६३
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डॉ. सागरमल जैन संस्थापक निदेशक प्राच्य विद्यापीठ, शाजापुर
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