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________________ | महाजाग्रत, 4 जाग्रतस्वप्न, 5 स्वप्न, 6 स्वप्नजाग्रत और 7 सुषुप्ति । ज्ञान दशा की सात भूमिकाएँ निम्न मानी गई है1 शुभेच्छा, 2 विचारणा, 3 तनुमांसा, 4 सत्वापत्ति, 5 असंसक्ति, 6 पदार्थाभावनी और 7 तुर्यग । योग दर्शन में आध्यात्मिक विकास की दृष्टि से चित्त की 5 दशाओं का उल्लेख किया गया है । 1 मूढ़, 2 क्षिप्त, 3 विक्षिप्त, 4 एकाग्र और 5 निरूद्ध। इस प्रकार विभिन्न धर्मदर्शनों में प्रतिपादित ये सभी अवस्थाएँ व्यक्ति के आध्यात्मिक विकास की ही चर्चा करती है और यह बताती है कि व्यक्ति की चैतसिक एवं चारित्रिक विशुद्धि की स्थिति क्या है ? जहाँ तक जैन धर्म दर्शन का प्रश्न है, उसमें भी आध्यात्मिक विशुद्धि की अवस्थाओं को अनेक प्रकार से व्याख्यायित किया गया है । सर्वप्रथम एक स्थूलवर्गीकरण मिथ्यादृष्टि और सम्यग्दृष्टि के आधार पर किया जाता है, किन्तु इसके अतिरिक्त एक अन्य वर्गीकरण बहिरात्मा, अन्तरात्मा और परमात्मा के रूप में भी हमें उपलब्ध होता है। साथ ही तीन अशुभ और तीन शुभ लेश्याओं के आधार पर भी व्यक्ति के आध्यात्मिक एवं नैतिक क्रमिक विकास का चित्रण किया गया है । उसके पश्चात् चार ध्यानों के आधार पर भी व्यक्ति की आध्यात्मिक विशुद्धि की स्थिति का अंकन किया गया है । ये ध्यान व्यक्ति की चित्तवृत्ति के सूचक हैं । आचार्य हरिभद्र ने आठ योग दृष्टियों की भी चर्चा की है, वे भी व्यक्ति के आध्यात्मिक विकास की सूचक है । इसके अतिरिक्त कर्म निर्जरा की अवस्थाओं के आधार पर एक दशविध वर्गीकरण भी हमें उपलब्ध होता है । वस्तुतः इसी दशविध वर्गीकरण का विकसित रूप हमें गुण स्थान सिद्धान्त के रूप में मिलता है। जैन दर्शन में व्यक्ति के आध्यात्मिक विकास तथा चैतसिक एवं चारित्रिक विशुद्धि को आधार बनाकर अनेक वर्गीकरण उपलब्ध होते हैं । इस प्रकार जैन दर्शन में द्विविध, त्रिविध, चतुर्विध, षट्विध, अष्टविध, दशविध और चतुर्दशविध, वर्गीकरण हमें उपलब्ध होते हैं । जहाँ तक द्विविध वर्गीकरण का प्रश्न है यह वर्गीकरण जैन, बौद्ध और वैदिक तीनों ही परम्पराओं में पाया जाता है । वैदिक परम्परा में मिथ्यादृष्टि और सम्यग्दृष्टि को कृष्णपक्षी और शुक्लपक्षी भी कहा गया है । इसी प्रकार उत्तरोत्तर कर्मनिर्जरा के आधार पर जो दशविध वर्गीकरण किया गया है, वह वर्गीकरण बौद्ध परम्परा की दशभूमियों से आंशिक समानता और आंशिक भिन्नता लिये हुए है । इसी प्रकार योगवशिष्ठ में अज्ञान दशा के सात और ज्ञान दशा के सात ऐसे जो चौदह वर्ग निर्धारित किये गये हैं, वे जैन परम्परा के चौदह गुणस्थानों की अवधारणा से आंशिक समानता रखते हैं । जैसा कि हमनें पूर्व में कहा आज गुणस्थान सिद्धान्त जैन कर्मसिद्धान्त के अन्तर्गत कर्मों की निर्जरा और आध्यात्मिक विकास के विभिन्न स्तरों के मूल्यांकन करने का जैनदर्शन में एकमात्र आधार है। इस प्रकार त्रिविध आत्मा की अवधारणा, षट्लेश्याओं की अवधारणा, आठ योगदृष्टियों की अवधारणा, कर्म विशुद्धि की दस अवस्थाओं की अवधारणा और चौदह गुणस्थानों की अवधारणा-ये सभी व्यक्ति के आध्यात्मिक विकास के चर्चा करने के प्रमुख आधार रहे हैं । साध्वी दर्शनकलाजी ने अपने इस शोधप्रबन्ध में इन सभी अवस्थाओं का न केवल चित्रण किया है अपितु उनका तुलनात्मक विवेचन भी प्रस्तुत किया है । साथ ही कर्म प्रकृतियों के बन्ध-बन्धविच्छेद, सत्ता-सत्ताविच्छेद, उदय-उदयविच्छेद, उदीरणा-उदीरणाविच्छेद की विभिन्न गुणस्थानों में क्या 9 स्थिति होती है, इसे तथा चौदह जीवस्थानों, चौदह मार्गणास्थानों में आठों अनुयोग द्वारों के आधार पर गुणस्थानों ? Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001733
Book TitlePrakrit evam Sanskrit Sahitya me Gunsthan ki Avadharana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarshankalashreeji
PublisherRajrajendra Prakashan Trust Mohankheda MP
Publication Year2007
Total Pages566
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, Soul, & Spiritual
File Size20 MB
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