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________________ आदि के आधार पर गुणस्थानों की चर्चा करते हैं । हमें यह मानने में भी कोई आपत्ति नहीं है कि श्वेताम्बर परम्परा में जीवसमास और दिगम्बर परम्परा में षट्खण्डागम गुणस्थान सिद्धान्त के प्रथम आधारभूत ग्रन्थ है, उसके पश्चात् । श्वेताम्बर परम्परा में सिद्धसेनगणि की तत्त्वार्थसूत्र की टीका में और आवश्यकचूर्णि ही ऐसे ग्रन्थ है, जो गुणस्थानों की स्पष्ट चर्चा करते हैं, फिर भी इनमें गुणस्थानों की यह चर्चा अपेक्षाकृत संक्षिप्त ही है। जबकि दिगम्बर परम्परा में षट्खण्डागमकार ने एवं आचार्य पूज्यपाद देवनंदी से लेकर तत्वार्थसूत्र के सभी टीकाकारों ने इसकी अपेक्षाकृत विस्तृत चर्चा की है । इस आधार पर यह सुस्पष्ट है कि गुणस्थान सिद्धान्त का विकास एक कालक्रम में ही हुआ । यहाँ यह भी ज्ञातव्य है कि गुणस्थान सिद्धान्त की यह विकास यात्रा भी श्वेताम्बर और दिगम्बर परम्परा में भिन्न-भिन्न रूप में हुई है । जहाँ श्वेताम्बर कर्मग्रन्थ में विभिन्न गुणस्थानों में विभिन्न कर्म प्रकृतियों के बन्ध, बन्धविच्छेद, सत्ता, सत्ताविच्छेद, उदय, उदयविच्छेद, उदीरणा, उदीरणाविच्छेद आदि को लेकर उनके सत्तास्थानों और बन्ध विकल्पों की चर्चा की गई है, वहीं दिगम्बर परम्परा में षट्खण्डागम और पूज्यपाद देवनंदी की सर्वार्थसिद्धटीका में गुणस्थानों में मार्गणास्थानों का तथा जीवस्थानों का आठ अनुयोगद्वारों के आधार पर अवतरण किया गया है । यद्यपि षट्खण्डागम एवं गोम्मटसार में प्रकारान्तर से गुणस्थानों में कर्म प्रकृतियों के बन्ध उदय उदीरणा सत्ता आदि की चर्चा मिलती है, फिर भी दोनों की शैली में भिन्नता है इसका निर्देश पूर्व में भी किया जा चुका है। इस प्रकार श्वेताम्बर और दिगम्बर परम्पराओं में गुणस्थान सिद्धान्त की जो चर्चा है, उसमें शैली वैविध्य है । जहाँ तक गुणस्थान की अवधारणा के विकास का मूल प्रश्न है, उसका सम्बन्ध व्यक्ति के आध्यात्मिक विकास से है । यह स्पष्ट है कि व्यक्ति के आध्यात्मिक विकास के विभिन्न स्तरों की चर्चा प्राचीनकाल से ही भारत में प्रचलित रही है । सर्वप्रथम उपनिषदों में अन्तःप्रज्ञ और बहिर्पज्ञ के रूप में तथा अन्नमयकोश, प्राणमयकोश, मनोमयकोश, प्रज्ञानमयकोश और आनंदमयकोश के रूप में आध्यात्मिक विकास की चर्चा मिलती है । बौद्ध और जैन परम्परा में बहिर्पज्ञ और अन्तःप्रज्ञ को क्रमशः मिथ्यादृष्टि और सम्यग्दृष्टि के रूप में अथवा पृथग्जन और आर्य के रूप में भी उल्लेखित किया गया है । उसके पश्चात् बौद्ध धर्म की हीनयान परम्परा में श्रोतापन्नभूमि, सत्कृतागामीभूमि, अनागामीभूमि और अर्हद्भूमि ऐसी चार भूमियों की भी चर्चा है । बौद्धधर्म की ही महायान परम्परा में इन चार भूमियों के स्थान पर निम्न दस भूमियों की चर्चा हुई । 1 प्रमुदिता, 2 विमला, 3 प्रभाकरी, 4 अर्चिष्मती, 5 सुदुर्जया, 6 अभिमुक्ति, 7 दुरंगमा, 8 अचला, 9 साधुमती और 10 धर्ममेघा। यहाँ यह भी ज्ञातव्य है कि हीनयान परम्परा से महायान परम्परा की ओर संक्रमण काल में लिखे गये महावस्तु नामक ग्रन्थ में भी दस भूमियों का उल्लेख हुआ है । यद्यपि ये दस भूमियाँ पूर्वोक्त दस भूमियों से भिन्न है, ये निम्न है-1 दूरारोहा, 2 वर्द्धमान, 3 पुष्पमण्डिता, 4 रूचिरा, 5 चित्तविस्तार, 6 रूपमती, 7 दुर्जया, 8 जन्मनिदेश, 9 यौवराज और 10 अभिषेक । इसी प्रकार आजीवक श्रमण परम्परा में भी आध्यात्मिक विकास की अवधारणा को लेकर आठ अवस्थाओं का उल्लेख मिलता है । ये आठ अवस्थाएँ है- 1 मन्द, 2 क्रीड़ा, 3 पदमीमांसा, 4 ऋतुव्रत, 5 शैक्ष्य, 6 समण, 7 जिन और 8 प्राज्ञ । हिन्दू परम्परा के प्रसिद्ध ग्रन्थ योगवाशिष्ट में सात अज्ञान की और सात व ज्ञान की ऐसी 14 भूमिकाओं की चर्चा है । अज्ञानदशा की सात भूमिका निम्न है-1 बीज जाग्रत, 2 जाग्रत, 30 Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001733
Book TitlePrakrit evam Sanskrit Sahitya me Gunsthan ki Avadharana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarshankalashreeji
PublisherRajrajendra Prakashan Trust Mohankheda MP
Publication Year2007
Total Pages566
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, Soul, & Spiritual
File Size20 MB
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