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एवं भाष्यों में गुणस्थान सिद्धान्त की कहीं भी कोई व्यवस्थित चर्चा उपलब्ध नहीं है, मात्र कुछ अवस्थाओं के यत्र-तत्र कुछ संकेत हैं । यदि ये आचार्य उससे परिचित होते तो कहीं न कहीं उसका उल्लेख अवश्य करते।समवायांगसूत्र के 14वें समवाय की जिस गाथा में जीवस्थान के नाम से तथा आवश्यक नियुक्ति जो 14 गुणस्थानों के नाम आये हैं, वे गाथाएँ परवर्ती प्रक्षेप हैं और संग्रहणी सूत्र से उद्धृत है। क्योंकि आठवीं शती में हरिभद्र ने आवश्यक नियुक्ति की टीका में उसे संग्रहणी गाथा कहा है । दिगम्बर ग्रन्थ षट्खण्डागम में भी इन 14 अवस्थाओं को पहले जीवसमास के नाम से ही उल्लेखित किया गया है, बाद में उन्हें गुणस्थान नाम दिया गया है । अतः गुणस्थान की स्पष्ट अवधारणा 5वीं शती के अन्त में ही कभी अस्तित्व में आयी है । साथ ही यह भी स्पष्ट है कि कर्म निर्जरा कि दस अवस्थाओं से या आगमों में प्रकीर्ण रूप से उल्लेखित विभिन्न अवस्थाओं के त्रिको या द्विको से ही इसका विकास हुआ है । यह आश्चर्यजनक तथ्य है कि जहाँ अर्धमागधी आगम साहित्य मात्र समवायांग की उस प्रक्षिप्त गाथा को छोड़कर गुणस्थान की अवधारणा का कहीं भी कोई स्पष्ट उल्लेख नहीं करता है । वहीं दिगम्बर परम्परा में मान्य शौरसेनी प्राकृत में रचित आगमतुल्य साहित्य में कषायपाहुड को छोड़कर षट्खण्डागम, मूलाचार, भगवती आराधना आदि प्राचीन माने जाने वाले ग्रन्थों में इस सिद्धान्त का व्यवस्थित एवं विकसित विवरण उपलब्ध होता है । मात्र यही नहीं आचार्य कुन्दकुन्द के ग्रन्थों में भी चाहे इस सिद्धान्त का विस्तृत उल्लेख न भी हो किन्तु उनके काल तक न केवल गुणस्थान सिद्धान्त का विकास हो चुका था, अपितु गुणस्थान, जीवस्थान और मार्गणास्थान के सहसम्बन्धों का भी निर्धारण हो चुका था । यही कारण है कि कुन्दकुन्द आत्मतत्त्व के अनिर्वचनीय स्वरूप का उल्लेख करते हुए स्पष्ट रूप से लिखते हैं कि आत्मा न जीव स्थान है, न गुण स्थान है, एवं न मार्गणास्थान है । शौरसेनी आगम तुल्य साहित्य में मात्र कषायपाहुड़ ही एक ऐसा अपवाद है, जिसमें गुणस्थान सिद्धान्त का स्पष्ट उल्लेख नहीं है । इससे यह भी स्पष्ट होता है कि कषायपाहुड़ को छोड़कर शेष शौरसेनी आगमतुल्य साहित्य 5वीं शती के बाद का ही है । गुणस्थानों का जीवस्थानों, मार्गणास्थानों तथा आठ कर्मों की विभिन्न प्रकृतियों के उदय, उदीरणा, सत्ता, बंध और निर्जरा से क्या सह सम्बन्ध है, इसका उल्लेख जहाँ श्वेताम्बर परम्परा में कर्मग्रन्थों और पंचसंग्रह में उपलब्ध होता है, वही दिगम्बर परम्परा में यह विवेचन मुख्यतः षट्खण्डागम, गोम्मटसार (10वीं शती) और दिगम्बर प्राकृत एवं संस्कृत पंचसंग्रहों में उपलब्ध है, लेकिन ये ग्रन्थ अपेक्षाकृत परवर्ती ही है।
मात्र यही नहीं कर्मसिद्धान्त की इस चर्चा में श्वेताम्बर परम्परा में कर्मग्रन्थों की मान्यता में और आगमिक मान्यता में मतभेद भी नजर आते हैं, साथ ही श्वेताम्बर और दिगम्बर परम्पराओं में भी कुछ मतभेद पाये जाते हैं। जिसका उल्लेख पण्डित सुखलालजी ने एवं पूज्या साध्वी दर्शनकलाजी ने भी किया है, इसके अतिरिक्त यह उल्लेख कषायपाहुड़ और षट्खण्डागम की भूमिका में दिगम्बर विद्वानों ने भी किया है ।
श्वेताम्बर परम्परा में गुणस्थान सिद्धान्त की अवधारणा को स्पष्टतः प्रस्तुत करने वाला प्रथम ग्रन्थ जीवसमास है । तुलनात्मक आधार पर मैंने और कुछ दिगम्बर विद्वानों ने भी यह माना है कि जीवसमास ही षखण्डागम का आधारभूत ग्रन्थ रहा है । जीवसमास की शैली कर्मग्रन्थों से भिन्न षट्खण्डागम के समान है, क्योंकि दोनों ग्रन्थ आठ अनुयोग द्वारों के आधार पर ही गुणस्थानों की चर्चा करते हैं, जबकि कर्मग्रन्थ कर्मप्रकृतियों के बन्ध, उदय,
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