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प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा....
पंचम अध्याय........{332} बन्धस्वामित्व नामक तृतीय कर्मग्रन्थ में गाथा क्रमांक पांच से पच्चीस तक विभिन्न मार्गणाओं में होने वाली कर्मप्रकृतियों के बन्ध का निर्देशन मिलता है । प्रथम तीन नारकी के जीव देवद्विक आदि १६ प्रकृतियों को छोड़कर सामान्यतया १०१ प्रकृतियों का बन्ध करते है । इनमें भी मिथ्यात्व गुणस्थानवर्ती प्रथम तीन नारकी के जीव तीर्थंकर नामकर्म के बिना १०० प्रकृतियों का बन्ध करते हैं । सास्वादन गुणस्थानवर्ती प्रथम तीन नारकी के जीव नपुंसक चतुष्क के बिना ६६ प्रकृतियों का बन्ध करते हैं । सम्यग्मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवर्ती प्रथम तीन नारकी के जीव अनन्तानुबन्धी और उसकी सहगामी २६ प्रकृतियों के बिना ७० प्रकृतियों का बन्ध करते है। अविरतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवर्ती प्रथम तीन नारकी के जीव तीर्थंकर नामकर्म और मनुष्यायु सहित ७२ प्रकृतियों का बन्ध करते हैं । पंकप्रभा आदि तीन नारकी के जीव का बन्ध रत्नप्रभा आदि तीन नारकी के समान ही है, परन्तु विशेष यह है कि पंकप्रभा आदि तीन नारकी के जीव तीर्थकर नामकर्म का बन्ध नहीं करते हैं । सप्तम नारकी के जीव तीर्थकर नामकर्म और मनुष्यायु के बिना सामान्य से ६६ प्रकृतियों का बन्ध करते है । मिथ्यात्व गुणस्थानवर्ती सप्तम नारकी के जीव मनुष्यद्विक और उच्चगोत्र के बिना E६ प्रकृतियों का बन्ध करते हैं । सास्वादन गुणस्थानवर्ती सप्तम नारकी के जीव तिर्यंचायुष्य तथा नपुंसक चतुष्क के बिना ६१ प्रकृतियों का बन्ध करते हैं । मिश्र और अविरतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवर्ती सप्तम नारकी के जीव अनन्तानुबन्धी आदि २४ के बिना तथा मनुष्यद्विक एवं उच्चगोत्र सहित ७० प्रकृतियों का बन्ध करते हैं।
गतिमार्गणा में सामान्य से तथा मिथ्यात्व गुणस्थान में जिननाम और आहारकद्विक बिना पर्याप्त तिर्यंच पंचेन्द्रिय ११७ प्रकृतियों का बन्ध करते हैं । सास्वादन गुणस्थानवर्ती पर्याप्त तिर्यंच पंचेन्द्रिय नरकत्रिक आदि १६ प्रकृति के बिना १०१ प्रकृतियों का तथा मिश्र गुणस्थानवर्ती पर्याप्त तिर्यंच पंचेन्द्रिय अनन्तानुबन्धी आदि ३१ और देवायुष्य बिना ६६ प्रकृतियों का, अविरतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवर्ती पर्याप्त तिर्यंच पंचेन्द्रिय देवायुष्य सहित ७० प्रकृतियों का तथा देशविरति गुणस्थानवर्ती पर्याप्त तिर्यंच पंचेन्द्रिय अप्रत्याख्यानीय कषाय चतुष्क बिना ६६ प्रकृतियों का बन्ध करते हैं । गतिमार्गणा में मनुष्य गति में प्रथम के चार गुणस्थान में बन्ध की स्थिति पर्याप्त तिर्यंच पंचेन्द्रिय के समान ही जानना चाहिए । विशेष यह है कि चतुर्थ गुणस्थानवी मनुष्य जिननाम का भी बन्ध करते हैं । देशविरति आदि आगे के गुणस्थानों में बन्ध की स्थिति द्वितीय कर्मग्रन्थ में बताए अनुसार समझना चाहिए । अपर्याप्त तिर्यंच तथा अपर्याप्त मनुष्य तीर्थंकर नामकर्म आदि ११ प्रकृतियों के बिना शेष १०६ प्रकृतियों का बन्ध करते हैं। देवगति में बन्ध नारकी के समान है, परन्तु मिथ्यात्व गुणस्थानवर्ती देव एकेन्द्रियत्रिक सहित बन्ध करते हैं । प्रथम के दो देवलोक में बन्ध का वर्णन करने के पश्चात् ज्योतिष, भवनपति और व्यंतर में तीर्थंकर नामकर्म के बिना समझना चाहिए। सनत्कुमारादि देव रत्नप्रभा नारकी के समान बन्ध करते हैं । आनतादि देवलोक के देव उद्योत चतुष्क रहित बन्ध करते हैं । मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवर्ती एकेन्द्रिय, पृथ्वीकाय, अप्काय, वनस्पतिकाय और विकलेन्द्रिय जीवों का बन्ध अपर्याप्त तिर्यंच के समान १०६ प्रकृतियों का बन्ध करते है । सास्वादन गुणस्थानवर्ती इन सात मार्गणा वाले जीव सूक्ष्मादि तेरह प्रकृतियों के बिना ६६ कर्मप्रकृतियों का बन्ध करते हैं । अन्य आचार्यों के मतानुसार सास्वादन गुणस्थानवर्ती इन सात मार्गणा वाले जीव तिर्यंचायुष्य और मनुष्यायुष्य के बिना ६४ प्रकृतियों का ही बन्ध करते हैं, क्योंकि सास्वादन गुणस्थान अल्पकालीन होने के कारण वे जीव शरीर पर्याप्ति पूर्ण नहीं कर पाते हैं । शरीर पर्याप्ति पूर्ण होने पर सास्वादन गुणस्थान रहता ही नहीं है । पंचेन्द्रिय जाति और त्रसकाय मार्गणा में बन्ध की स्थिति द्वितीय कर्मग्रन्थ में बताए अनुसार सामान्य कथन के अनुरूप जानना चाहिए । गतित्रस अर्थात् तेजस्काय और वायुकाय के जीव तीर्थंकर नामकर्म आदि ग्यारह, मनुष्यत्रिक और उच्चगोत्र के बिना १०५ प्रकृतियों का बन्ध करते है। मनोयोग और वचनयोग में बन्ध की स्थिति दूसरे कर्मग्रन्थ में बताए अनुसार सामान्य कथन के अनुरूप जानना चाहिए।
औदारिक काययोग में बन्ध की स्थिति मनुष्य के समान ही जानना चाहिए । औदारिकमिश्र काययोग में सामान्य से आहारकषट्क बिना ११४ प्रकृतियों का बन्ध होता है । मिथ्यात्व गुणस्थानवर्ती औदारकमिश्र काययोग वाले जीव तीर्थंकर नामकर्मादि पाँच प्रकतियों के बिना १०६ प्रकतियों का बन्ध करते हैं । सास्वादन गुणस्थानवर्ती औदारकमिश्र काययोग वाले जीव मनुष्यायु, तिर्यंचायु तथा सूक्ष्मादि तेरह प्रकृतियों के बिना ६४ प्रकृतियों का बन्ध करते है । अविरतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवर्ती औदारिकमिश्र काययोगवाले अनन्तानुबन्धी आदि २४ प्रकृतियों के बिना तथा तीर्थकर नामकर्मादि पाँच प्रकृतियों सहित ७५ प्रकृतियों का बन्ध करते हैं । सयोगी गुणस्थानवर्ती औदारिकमिश्र काययोगवाले जीव मात्र एक ही शातावेदनीय का बन्ध करते है । कार्मण काययोग में भी तिर्यंचायु और मनुष्यायु के बिना द्वितीय कर्मग्रन्थ में बताए अनुसार सामान्य कथन के अनुरूप जानना चाहिए । आहारक काययोग और आहारकमिश्र काययोग में बन्ध की स्थिति द्वितीय कर्मग्रन्थ में बताए अनुसार सामान्य कथन के अनुरूप ही है । वैक्रियकाययोग में बन्ध की स्थिति देवगति के समान ही है । वैक्रियमिश्रकाययोग में तिर्यंचायुष्य और मनुष्यायुष्य का बन्ध नहीं
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