SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 263
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा.... चतुर्थ अध्याय........{217} जघन्य अन्तर सासादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थान में पल्योपम का असंख्यातवाँ भाग और सम्यग्मिथ्यादृष्टि गुणस्थान में अन्तर्मुहूर्त है, उत्कृष्ट अन्तर पूर्व कोटि पृथक्त्व अधिक तीन०३ पल्योपम है। असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवर्ती सभी जीवों की अपेक्षा अन्तर नहीं है । एक जीव की अपेक्षा जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तर पूर्व कोटि पृथक्त्व अधिक तीन पल्योपम है। संयतासंयत, प्रमत्तसंयत और अप्रमत्तसंयत गुणस्थानवर्ती सभी जीवों की अपेक्षा कोई अन्तरकाल नहीं है। एक जीव की अपेक्षा जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तर पूर्व कोटि पृथक्त्व है। चारों उपशमकों में सभी जीवों की अपेक्षा अन्तरकाल, अन्तर-अनुयोगद्वार में जैसा कथन है, वैसा ही समझना चाहिए । एक जीव की अपेक्षा जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तर पूर्व कोटि पृथक्त्व है। शेष गुणस्थानों का अन्तरकाल, अन्तर-अनुयोगद्वार में जो कहा गया है, उसके अनुसार मानना चाहिए। देवगति में देवों में मिथ्यादृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवर्ती सभी जीवों की अपेक्षा कोई अन्तरकाल नहीं है । एक जीव की अपेक्षा जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम इकतीस सागरोपम०५ है । सासादनसम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवर्ती सभी जीवों की अपेक्षा अन्तरकाल, अन्तर-अनुयोगद्वार में सामान्य रूप से कथन के समरूप जानना चाहिए । एक जीव की अपेक्षा जघन्य अन्तर सासादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थान में पल्योपम का असंख्यातवाँ भाग और सम्यग्मिथ्यादृष्टि गुणस्थान में अन्तर्मुहूर्त है, उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम इकतीस सागरोपम है । _इन्द्रियमार्गणा में एकेन्द्रिय सभी जीवों की अपेक्षा से अन्तर नहीं है, क्योंकि ये सभी कालों में होते हैं। एक जीव की अपेक्षा जघन्य अन्तर क्षुद्रभवग्रहण परिमाण और उत्कृष्ट अन्तर पूर्व कोटि पृथक्त्व अधिक दो हजार२०६ सागरोपम है । विकलेन्द्रियों में सभी जीवों की अपेक्षा अन्तर नहीं है। एक जीव की अपेक्षा जघन्य अन्तर क्षुद्रभवग्रहण परिमाण और उत्कृष्ट अन्तरकाल अनन्त काल है, जिसका परिमाण असंख्यात पुद्गल परावर्तन है। इस प्रकार सामान्यतः इन्द्रिय की अपेक्षा से अन्तर कहा है । एकेन्द्रिय और विकलेन्द्रिय जीव मिथ्यात्व गुणस्थानवाले होते हैं, अतः गुणस्थान की अपेक्षा से अन्तर नहीं है या उत्कृष्ट और जघन्य-दोनों प्रकार से अन्तर नहीं है । पंचेन्द्रियों में मिथ्यादृष्टि जीवों का अन्तरकाल, अन्तर-अनुयोगद्वार में सामान्य रूप से जो कथन किया है, वही समझना चाहिए । सासादनसम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टि के सभी जीवों की अपेक्षा अन्तरकाल, अन्तर-अनुयोगद्वार में सामान्य रूप से जो कथन किया है, वैसा ही समझना चाहिए । एक जीव की अपेक्षा जघन्य अन्तर क्रमशः पल्योपम का असंख्यातवाँ भाग और अन्तर्मुहूर्त तथा उत्कृष्ट अन्तर पूर्व कोटि पृथक्त्व अधिक एक२० हजार सागरोपम है । असंयतसम्यग्दृष्टि से लेकर अप्रमत्तसंयत तक प्रत्येक गुणस्थान के सभी जीवों की अपेक्षा अन्तर नहीं है । एक जीव की अपेक्षा जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तर पूर्व कोटि पृथक्त्व अधिक एक हजार सागरोपम है । चारों उपशमकों का सभी जीवों की अपेक्षा अन्तरकाल, अनुयोगद्वार में सामान्य रूप से जो कथन किया गया है, वैसा ही मानना चाहिए । एक जीव की अपेक्षा जघन्य अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर पूर्व कोटि पृथक्त्व अधिक एक हजार सागरोपम है । शेष गुणस्थानों का ३०३ सम्यग्दृष्टि मनुष्य का उत्कृष्ट अन्तर आठ वर्ष दो अन्तर्मुहूर्त कम सैतालीस पूर्व कोटि और तीन पल्योपम है। ३०४ भोग भूमि में संयमासंयम या संयम की प्राप्ति सम्भव नहीं, इसीलिए सैतालीस पूर्व कोटि के भीतर ही यह अन्तर बतलाया है। ३०५ देवों में नवें ग्रेवेयक तक ही गुणस्थान परिवर्तन सम्भव है । इसी से यहाँ मिथ्यात्व और सम्यक्त्व का उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम इकतीस सागरोपम बतलाया है। ३०६ त्रस पर्याय में रहने का उत्कृष्ट काल पूर्व कोटि पृथक्त्व अधिक दो हजार सागरोपम है । इसी से एकेन्द्रियों का उक्त प्रमाण उत्कृष्ट अन्तर बतलाया ३०७ सासादनों का उत्कृष्ट अन्तर लाते समय पूर्व कोटि पृथक्त्व अधिक एक हजार सागरोपम में से आवलिका का असंख्यातवाँ भाग और नौ अन्तर्मुहूर्त कम कर देना चाहिए । मिश्र गुणस्थानवालों का उत्कृष्ट अन्तर लाते समय बारह अन्तर्मुहूर्त कम कर देना चाहिए। असंयतसम्यग्दृष्टियों का उत्कृष्ट अन्तर लाते समय दस अन्तर्मुहूर्त कम कर देना चाहिए । प्रमत्तसंयतो और अप्रमत्तसंयतों का उत्कृष्ट अन्तर लाते समय आठ वर्ष और दस अन्तर्मुहूर्त कम कर देना चाहिए । अपूर्वकरण आदि चार उपशमकों का उत्कृष्ट अन्तर लाते समय क्रम से ३०, २८, २६ और २४ अन्तर्मुहूर्त अधिक आठ वर्ष कम कर देना चाहिए। Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001733
Book TitlePrakrit evam Sanskrit Sahitya me Gunsthan ki Avadharana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarshankalashreeji
PublisherRajrajendra Prakashan Trust Mohankheda MP
Publication Year2007
Total Pages566
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, Soul, & Spiritual
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy