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________________ ने प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा...... चतुर्थ अध्याय......{216} जीवों की अपेक्षा जघन्य अन्तराल एक समय का और उत्कृष्ट अन्तराल पल्योपम२६७ का असंख्यातवाँ भाग है । एक जीव की अपेक्षा जघन्य अन्तर एक समय का और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम अर्ध-पुद्गल-परावर्तन है । सम्यग्मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवर्ती सभी जीवों की अपेक्षा अन्तरकाल सासादनसम्यग्दृष्टियों के समान ही होता है । एक जीव की अपेक्षा जघन्य अन्त और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम अर्ध पुद्गल परावर्तन है। असंयतसम्यग्दृष्टि से लेकर अप्रमत्तसंयत गुणस्थान तक प्रत्येक गुणस्थान में रहे हुए सभी जीवों की अपेक्षा अन्तरकाल नही होता है, किन्तु एक जीव की अपेक्षा जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम अर्ध पुद्गल परावर्तन है । चारों उपशमकों में सभी जीवों की अपेक्षा जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर वर्ष पृथक्त्व है । इससे अधिक अन्तर नहीं होता है, क्योंकि कोई न कोई जीव उपशमश्रेणी से आरोहण प्रारम्भ कर ही देता है। एक जीव की अपेक्षा जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त६८ और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम अर्ध-पुद्गल-परावर्तन है । चारों क्षपक और अयोगी केवली गुणस्थानवर्ती सभी जीवों की अपेक्षा जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर छः माह है। एक जीव की अपेक्षा अन्तर नहीं है । सयोगी केवली सभी जीवों की अपेक्षा और एक जीव की अपेक्षा अन्तरकाल नहीं है। गतिमार्गणा की अपेक्षा नरकगति से सातों पृथ्वी में मिथ्यादृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि सभी जीवों की अपेक्षा अन्तर नहीं है । एक जीव की अपेक्षा जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तर क्रमशः कुछ कम एक सागरोपम, कुछ कम तीन सागरोपम, कुछ कम सात सागरोपम, कुछ कम दस सागरोपम, कुछ कम सत्रह सागरोपम, कुछ कम बाईस सागरोपम और कुछ कम तेंतीस६६ सागरोपम है । सासादनसम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवर्ती सभी जीवों की अपेक्षा जघन्य अन्तर एक समय का है और उत्कृष्ट अन्तर पल्योपम का असंख्यातवाँ भाग है, किन्तु एक जीव की अपेक्षा जघन्य अन्तर सासादनसम्यग्दृष्टि की अपेक्षा पल्योपम का असंख्यातवाँ भाग और सम्यग्मिथ्यादृष्टि की अपेक्षा अन्तर्मुहूर्त होता है । उत्कृष्ट अन्तर सातों नरकों में क्रमशः कुछ कम एक सागरोपम, कुछ कम तीन सागरोपम, कुछ कम सात सागरोपम, कुछ कम दस सागरोपम, कुछ कम सत्रह सागरोपम, कुछ कम बाईस सागरोपम और कुछ कम तेंतीस०० सागरोपम है। तिर्यंचगति में तिर्यंचों में मिथ्यादृष्टि सभी जीवों की अपेक्षा अन्तर नहीं है, किन्तु एक जीव की अपेक्षा जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम तीन पल्योपमः' है। सासादनसम्यग्दृष्टि से लेकर संयतासंयत-इन चारों गुणस्थानों का अन्तरकाल, अन्तर-अनुयोगद्वार में सामान्य रूप से जो कहा है, उसके अनुसार समझना चाहिए। मनुष्यगति में मनुष्यों में मिथ्यादृष्टि का अन्तर तिर्यंचों के समान है।३०२ सासादनसम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टि के सभी जीवों की अपेक्षा अन्तरकाल, अन्तर-अनुयोगद्वार में सामान्य रूप से जो कथन किया है, वही मानना चाहिए । एक जीव की अपेक्षा २६६ यदि सासादनसम्यग्दृष्टि न हो तो वे कम से कम एक समय तक और अधिक से अधिक पल्योपम के असंख्यातवाँ भाग काल तक नहीं होते इसी से इनका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर पल्योपम के असंख्यातवाँ भाग परिमाण बतलाया है। २६७ सासादन गुणस्थान उपशम सम्यक्त्व से च्युत होने पर प्राप्त हो सकता है, किन्तु एक जीव कम से कम पल्योपम का अंसख्यातवाँ भाग परिमाण काल के जाने पर ही दूसरी बार उपशम सम्यक्त्व को प्राप्त हो सकता है । इसी से यहाँ सासादनसम्यग्दृष्टि का जघन्य अन्तरकाल पल्योपम का असंख्यातवाँ भाग परिमाण बतलाया है। २६८ एक जीव उपशमश्रेणी से च्युत होकर पुनः अन्तर्मुहूर्त के बाद उपशमश्रेणी पर चढ़ सकता है । इसीलिए चारों उपशमकों का एक जीव की अपेक्षा जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त बतलाया है। २६६ जिस नरक की जितनी उत्कृष्ट स्थिति है, उसके प्रारम्भ और अन्त में अन्तर्मुहूर्त तक मिथ्यात्व के साथ रहकर मध्य में सम्यक्त्व के साथ रहने से उस नरक में मिथ्यात्व का उत्कृष्ट अन्तर आ जाता है, जिसका निर्देश मूल में किया ही है । ३०० नरक में उत्कृष्ट स्थिति के साथ उत्पन्न होने पर अन्तर्मुहूर्त के बाद उपशम सम्यक्त्व को प्राप्त करवाकर सासादन और मिश्र में ले जाय । फिर मरते समय और मिश्र में ले जाय । इस प्रकार प्रत्येक नरक में मरने के अन्तर्मुहूर्त पहले सासादन और मिश्र ले जाय। ३०१ जो तीन पल्योपम की आयु के साथ कुक्कुट और मर्कट आदि पर्याय में दो माह रहा और वहाँ से निकलकर मुहुर्त पृथकत्व के भीतर वेदक सम्यक्त्व को प्राप्त हुआ। फिर अन्त में मिथ्यात्व में जाकर और सम्यक्त्व को प्राप्त होकर मरकर देव हुआ, उसके मुहुर्त पृथकत्व और दो माह कम तीन पल्योपम का उत्कृष्ट अन्तर होता है। ३०२ मनुष्यगति में मिथ्यात्व का उत्कृष्ट अन्तर १० माह और १६ दिन और दो अन्तर्मुहूर्त कम तीन पल्योपम है । Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001733
Book TitlePrakrit evam Sanskrit Sahitya me Gunsthan ki Avadharana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarshankalashreeji
PublisherRajrajendra Prakashan Trust Mohankheda MP
Publication Year2007
Total Pages566
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, Soul, & Spiritual
File Size20 MB
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