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प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा........
चतुर्थ अध्याय ........(215}
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काल अनुयोगद्वार में सम्यक्त्व मार्गणा की अपेक्षा से क्षायिक सम्यग्दृष्टि में असंयत सम्यग्दृष्टि से लेकर अयोगी केवली तक प्रत्येक गुणस्थान का काल, काल- अनुयोगद्वार में सामान्य रूप से जो निर्देशित किया गया है, वही जानना चाहिए । इसी तरह चारों क्षायोपशमिक, सम्यग्दृष्टियों का काल भी काल- अनुयोगद्वार में सामान्य रूप से जैसा बताया गया है, वैसा ही जानना चाहिए। औपशमिक सम्यग्दृष्टि जीवों में असंयतसम्यग्दृष्टि और संयतासंयत गुणस्थानवर्ती सभी जीवों की अपेक्षा से जघन्यकाल अन्तर्मुहू और उत्कृष्टकाल अन्तर्मुहूर्त ही है । प्रमत्तसंयत, अप्रमत्तसंयत और चारों उपशमकों का काल सभी जीव और एक जीव की अपेक्षा जघन्यकाल एक समय और उत्कृष्टकाल अन्तर्मुहूर्त है । सम्यक्त्व मार्गणा में सासादनसम्यग्दृष्टि, सम्यग्मिथ्यादृष्टि और मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवर्ती जीव का काल, काल- अनुयोगद्वार में सामान्य रूप से जैसा बताया गया है, उसके अनुसार ही जानना चाहिए ।
संज्ञीमार्गणा में संज्ञी जीवों की अपेक्षा मिध्यादृष्टि से लेकर अनिवृत्तिबादर गुणस्थान तक प्रत्येक गुणस्थान तक का काल पुरुषवेदवाले के समान ही होता है । शेष गुणस्थानों का काल, काल- अनुयोगद्वार में सामान्य रूप से जो बताया गया है, वैसा ही समझना चाहिए । सभी असंज्ञी मिध्यादृष्टि होते हैं । इन सभी जीवों की अपेक्षा सर्वकाल है, क्योंकि ये सर्वकालों में होते है । एक जीव की अपेक्षा जघन्यकाल क्षुद्रभवग्रहण परिमाण और भव्य - अभव्य की अपेक्षा अनन्त काल है और उत्कृष्ट अनन्तकाल है, जिसका परिमाण असंख्यात पुद्गल परावर्तन है । संज्ञा से रहित सयोगी और अयोगी केवली गुणस्थानवर्ती जीवों का काल, काल- अनुयोगद्वार में सामान्य रूप से जैसा कथन किया है, वैसा ही समझना चाहिए ।
आहार मार्गणा में आहारकों में मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवर्ती सभी जीवों की अपेक्षा से सर्वकाल है । एक जीव की अपेक्षा से जघन्यकाल अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्टकाल अंगुल के असंख्यातवें भाग परिमाण है, जिसका परिमाण असंख्यात संख्यात उत्सर्पिणी और अवसर्पणी है। शेष गुणस्थानों का काल, काल - अनुयोगद्वार में सामान्य रूप से जो बताया गया है, उसके अनुसार मानना चाहिए । अनाहारकों में मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवर्ती जीव सभी कालों में पाए जाते हैं, अतः उनका काल सर्वकाल है । मिथ्यादृष्टि एक जीव की अपेक्षा जघन्यकाल एक समय और उत्कृष्टकाल तीन समय है । सासादनसम्यग्दृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवर्ती सभी जीवों की अपेक्षा जघन्यकाल एक समय है और उत्कृष्टकाल आवलिका का असंख्यातवाँ भाग परिमाण एक जीव की अपेक्षा जघन्यकाल एक समय और उत्कृष्टकाल तीन समय है । सयोगी केवली गुणस्थानवर्ती अनाहारक सभी जीवों की अपेक्षा जघन्यकाल तीन समय और उत्कृष्टकाल असंख्यात समय है । एक जीव की अपेक्षा जघन्य और उत्कृष्टकाल तीन समय है । अयोगी केवली का काल, काल- अनुयोगद्वार में सामान्य रूप से जो निर्देशित किया है, उसे ही समझना चाहिए ।
षष्ठ अन्तर- अनुयोगद्वार :
तत्त्वार्थसूत्र की सर्वार्थसिद्धि टीका में आठ अनुयोगद्वारों के आधार पर चौदह मार्गणाओं के सन्दर्भ में चौदह गुणस्थानों का विवेचन किया गया है। संसार के सभी जीवों को एक अवस्था को छोड़कर पुनः उसी अवस्था को प्राप्त करने में जो समय लगता है, उन विविध अन्तरालों की प्ररूपणा जिसमें की गई है, उसे अन्तरद्वार कहते हैं । जब जीव को विवक्षित गुण या पर्याय गुणान्तर या पर्यायान्तर रूप से संक्रमित होकर पुनः उसी गुण या पर्याय की प्राप्ति होती है, तो उनके मध्य में जो काल होता है, उसको अन्तराल या अन्तरकाल कहते हैं । वह सामान्य और विशेष इन दो अपेक्षाओं से जाना जाता है । सामान्यतः मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवर्ती सभी जीवों की अपेक्षा से कोई अन्तरकाल नहीं होता है । एक जीव की अपेक्षा जघन्य अन्तराल अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तराल कुछ कम दो २६५ छासठ अर्थात् एक सौ बत्तीस सागरोपम का होता है । सासादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवर्ती सभी
२६५ यदि दर्शन मोहनीय का क्षपणाकाल सम्मिलित न किया जाय तो वेदक सम्यक्त्व का उत्कृष्टकाल अन्तर्मुहूर्त कम छासठ सागरोपम प्राप्त होता है । साथ ही यह भी नियम है कि ऐसा जीव मध्य में अन्तर्मुहूर्त के लिए मिश्र गुणस्थान में जाकर पुनः अन्तर्मुहूर्त कम छासठ सागरोपम तक वेदक सम्यक्त्व के साथ रह सकता है । इसके बाद वह या तो मिथ्यात्व में चला जाता है या दर्शन मोहनीय की क्षपणा करने लगता है । यहाँ मिथ्यात्व का उत्कृष्ट अन्तर जानना है, इसलिए मिथ्यादृष्टि का अन्तर कुछ कम एक सौ बत्तीस सागरोपम प्राप्त हो जाता है ।
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