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________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा...... चतुर्थ अध्याय........{214} अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्टकाल दो हजार सागरोपम है । सासादनसम्यग्दृष्टि से लेकर क्षीणकषाय गुणस्थान तक प्रत्येक गुणस्थान का काल, काल-अनुयोगद्वार में सामान्य रूप से जैसा कहा गया है, उसके अनुरूप ही समझना चाहिए । अचक्षुदर्शनवालों में मिथ्यादृष्टि गुणस्थान से लेकर क्षीणकषाय तक प्रत्येक गुणस्थान का काल, काल-अनुयोगद्वार में जैसा बताया गया है, वैसा मानना चाहिए । अवधिदर्शन और केवलदर्शनवाले जीवों का काल अवधिज्ञानी और केवलज्ञानी जीवों के काल के समान ही जानना चाहिए। लेश्यामार्गणा में कृष्ण, नील और कापोत लेश्यावाले मिथ्यादृष्टि जीव नाना जीवों की अपेक्षा सभी कालों में होते हैं । एक जीव की अपेक्षा जघन्यकाल अन्तर्मुहूर्त है व उत्कृष्टकाल क्रमशः साधिक तेंतीस सागरोपम , साधिक सत्रह सागरोपम और साधिक सात सागरोपम२६१ है । सासादनसम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टि का काल, काल-अनुयोगद्वार में सामान्य रूप से जो कहा गया है, उसके अनुसार समझना चाहिए । असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवी जीव, तीनों अशुभ लेश्यावाले जीव सभी कालों में होते है। एक जीव की अपेक्षा जघन्यकाल अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट काल क्रमशः कुछ कम तेंतीस सागरोपम, कुछ कम सत्रह सागरोपम और कुछ कम सात सागरोपम है। पीत और पद्मलेश्यावालों में मिथ्यादृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवी जीवों का काल सभी जीवों की अपेक्षा सर्वकाल है । एक जीव की अपेक्षा जघन्यकाल अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्टकाल क्रमशः साधिक दो२६२ सागरोपम और साधिक अठारह'६३ सागरोपम है।२६४ सासादनसम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टि का काल, काल-अनुयोगद्वार में जो कहा गया है, वही समझना चाहिए । संयतासंयत, प्रमत्तसंयत और अप्रमत्तसंयत गुणस्थानवर्ती पीत (तेजो) और पद्मलेश्यावाले जीव सभी काल में होते हैं । ये तीनों गुणस्थान तिर्यंच और मनुष्यगति में ही सम्भव है। आगम में देव और नारकों की लेश्या तो द्रव्यरूप से कथित है, जबकि मनुष्य एवं तिथंच में भाव रूप से कथित है । भाव लेश्या बदलती रहती है । इस अपेक्षा से संयतासंयत की लेश्या का उत्कृष्टकाल अन्तर्मुहूर्त है । शुक्ललेश्यावालों में मिथ्यादृष्टि सभी जीवों की अपेक्षा सम्पूर्ण काल है । एक जीव की अपेक्षा जघन्यकाल अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्टकाल साधिक इकतीस सागरोपम है । सासादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थान से लेकर सयोगी केवली तक प्रत्येक गुणस्थान का और लेश्या रहित जीवों का काल, काल अनुयोगद्वार में सामान्य रूप से जो निर्देशित किया गया है, वह मानना चाहिए, किन्तु संयतासंयत, प्रमत्तसंयत और अप्रमत्तसंयत गुणस्थानवर्ती का काल सभी जीवों की अपेक्षा सर्वकाल है । एक जीव की अपेक्षा जघन्यकाल एक समय और उत्कृष्टकाल अन्तर्मुहूर्त है। शुक्ललेश्यावाले मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवर्ती सामान्यतः सर्व कालों में होते हैं । एक जीव की अपेक्षा जघन्यकाल अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्टकाल साधिक इकतीस सागरोपम है। सासादनसम्यग्दृष्टि से लेकर सयोगी केवली तक प्रत्येक गुणस्थानवर्ती शुक्ल का और लेश्यारहित जीवों का काल, काल अनुयोगद्वार के समरूप है, किन्तु संयतासंयत गुणस्थानवी जीव सामान्यतः सर्व काल में होते हैं । एक जीव की अपेक्षा जघन्यकाल एक समय और उत्कृष्टकाल अन्तर्मुहूर्त है। में भव्य मार्गणा में मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवर्ती सभी जीवों की अपेक्षा तो सर्वकाल है, अर्थात् वे सभी कालों में पाए जाते हैं । एक जीव की अपेक्षा दो विकल्प हैं- अनादि सान्त और सादि सान्त । इनमें से सादि सान्त विकल्प की अपेक्षा जघन्यकाल अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्टकाल कुछ कम अर्ध-पुद्गल-परावर्तन हैं। सासादनसम्यग्दृष्टि से लेकर अयोगी केवली तक प्रत्येक गुणस्थान का काल, काल अनुयोगद्वार में सामान्य रूप से जो कथन किया गया है, उसके समरूप ही है । मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवर्ती अभव्यों का काल अनादि-अनन्त है। २६१ जो जिस लेश्या से नरक में उत्पन्न होता है, उसके मरते समय अन्तर्मुहूर्त पहले वही लेश्या आ जाती है । इसीप्रकार नरक से निकलने पर भी अन्तर्मुहूर्त तक वही लेश्या रहती है । इसलिए यहाँ मिथ्यादृष्टि की कृष्ण, नील और कापोत लेश्या का काल क्रम से साधिक तेंतीस सागरोपम, साधिक सत्रह सागरोपम और साधिक सात सागरोपम बतलाया है । २६२ मिथ्यादृष्टि के पल्योपम का असंख्यातवाँ भाग अधिक दो सागरोपम या अन्तर्मुहूर्त कम ढाई सागरोपम और सम्यग्दृष्टि के अन्तर्मुहूर्त कम ढाई सागरोपम। २६३ मिथ्यादृष्टि के पल्योपम का असंख्यातवाँ भाग अधिक अठारह सागरोपम और सम्यग्दृष्टि के अन्तर्मुहूर्त कम साढ़े अठारह सागरोपम। २६४ लेश्या परावृत्ति और गुण परावृत्ति से जघन्यकाल एक समय प्राप्त हो जाता है। Jain Education Interational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001733
Book TitlePrakrit evam Sanskrit Sahitya me Gunsthan ki Avadharana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarshankalashreeji
PublisherRajrajendra Prakashan Trust Mohankheda MP
Publication Year2007
Total Pages566
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, Soul, & Spiritual
File Size20 MB
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