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प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा.....
चतुर्थ अध्याय........{213} उत्कृष्टकाल अन्तर्मुहूर्त है। चारों उपशमक और चारों क्षपक गुणस्थान का सभी जीवों की अपेक्षा जघन्यकाल एक समय है और उत्कृष्टकाल अन्तर्मुहूर्त है। मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवर्ती काययोगी का काल सर्व जीवों की अपेक्षा सर्व काल है । एक जीव की अपेक्षा जघन्यकाल एक समय और उत्कृष्टकाल अनन्त काल है । जिसका परिमाण असंख्यात पुद्गल-परावर्तन है । शेष गुणस्थानों का काल मनोयोग के समान है तथा अयोगीकेवली गुणस्थान का काल, काल-अनुयोगद्वार में सामान्य रूप से जो कथन किया गया है, उसके समरूप है।
वेदमार्गणा में स्त्रीवेदी मिथ्यादृष्टि जीव सामान्यतः सर्व कालों में होते हैं । एक जीव की अपेक्षा जघन्यकाल अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्टकाल सौ पल्योपम पृथक्त्व है। स्त्रीवेदी सासादनसम्यग्दृष्टि से लेकर अनिवृत्तिबादरगुणस्थान तक प्रत्येक गुणस्थान का काल, काल-अनुयोगद्वार में सामान्य रूप से जो बताया है, उसी के अनुसार समझना चाहिए। स्त्रीवेदी असंयतसम्यग्दृष्टि जीव सभी कालों में होते हैं । स्त्रीवेदी असंयतसम्यग्दृष्टि एक जीव की अपेक्षा जघन्यकाल अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्टकाल कुछ कम पचपन पल्योपम२८६ है । पुरुषवेदी मिथ्यादृष्टि जीव सामान्यतः सभी कालों में होते हैं । एक जीव की अपेक्षा इसका जघन्यकाल अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्टकाल सौ सागरोपम२८ पृथक्त्व है । पुरुषवेदी सासादनसम्यग्दृष्टि से लेकर अनिवृत्तिबादर तक प्रत्येक गुणस्थान का काल, काल-अनुयोगद्वार में सामान्य रूप से जो कहा गया है, वही समझना चाहिए । नपुंसकवेदी मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवी जीव सामान्यतः सभी कालों में पाए जाते हैं, किन्तु एक जीव की अपेक्षा जघन्यकाल अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्टकाल अनन्त है, जिसका परिमाण असंख्यात पदगल परावर्तन परिमाण है। सासादनसम्यग्दृष्टि से लेकर अनिवृत्तिबादर तक प्रत्येक गुणस्थान का काल, काल-अनुयोगद्वार में जो सामान्य रूप से कहा गया है, उतना ही मानना चाहिए, किन्तु असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवर्ती नपुंसकजीव सामान्यतः सभी कालों में होते हैं । एक जीव की अपेक्षा इनका जघन्यकाल अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्टकाल कुछ कम तेंतीस सागरोपम८६ है । वेद रहित जीवों का काल, काल-अनुयोगद्वार में जो कथन किया गया है, उसके अनुसार समझना चाहिए।
कषायमार्गणा में मिथ्यादृष्टि गुणस्थान से लेकर अप्रमत्तसंयत गुणस्थान तक चारों कषाय का काल इन गुणस्थानों में रहे हुए मनोयोगी के समान है तथा दोनों उपशमक, दोनों क्षपक केवल लोभवाले (सूक्ष्मसंपराय गुणस्थानवाले) और कषाय रहित जीवों का काल, काल-अनुयोगद्वार में जो सामान्य रूप से कहा गया है, उसके अनुसार है।
ज्ञानमार्गणा में मति-अज्ञानी और श्रुत-अज्ञानी में मिथ्यादृष्टि और सासादनसम्यग्दृष्टि का काल, काल-अनुयोगद्वार में सामान्य रूप से जो कहा है, वही समझना चाहिए । विभंगज्ञानी मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवर्ती का काल सभी जीवों की अपेक्षा सम्पूर्ण काल है । एक जीव की अपेक्षा जघन्यकाल अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्टकाल कुछ कम तेंतीस६० सागरोपम है। सासादनसम्यग्दृष्टि का काल, काल-अनुयोगद्वार में जो कथन किया गया है, वैसा समझना चाहिए । आभिनिबोधिकज्ञानी, श्रुतज्ञानी, अवधिज्ञानी, मनःपर्यवज्ञानी और केवलज्ञानी का काल, काल-अनुयोगद्वार में जो कहा है, उसके समरूप है।
संयममार्गणा में सामायिक संयत, छेदोपस्थापनीय संयत, परिहारविशुद्धिसंयत, सूक्ष्मसंपराय संयत, यथाख्यात संयत, संयतासंयत और चारों असंयतों का काल, काल-अनुयोगद्वार के समरूप ही जानना चाहिए।
दर्शनमार्गणा में चक्षदर्शनवाले मिथ्यादृष्टि सामान्यतः सभी कालों में होते हैं, किन्तु एक जीव की अपेक्षा जघन्यकाल
२८५ उपशमकों के व्याघात बिना तीन प्रकार से और क्षपकों के मरण और व्याघात के बिना दो प्रकार से जघन्यकाल एक समय प्राप्त होता है। .२८६ देवी की उत्कृष्ट आयु पचपन पल्योपम है । इसमें से प्रारम्भ का अन्तर्मुहूर्त काल कम कर देने पर स्त्रीवेद में असंयतसम्यग्दृष्टि का काल कुछ कम
पचपन पल्योपम प्राप्त हुआ है। २८७ तीन सौ सागरोपम से उपर और नौ सो सागरोपम के नीचे । २८८ यह सादि-सान्त काल का निर्देश है। २८६ सातवीं नरक में असंयतसम्यग्दृष्टि का जो उत्कृष्टकाल है, वही यहाँ नपुंसकवेद में असंयतसम्यग्दृष्टि का उत्कृष्टकाल कहा गया है। २६० मिथ्यादृष्टि नारकी या देव को उत्पन्न होने के बाद पर्याप्त होने पर विभंगज्ञान प्राप्त होता है । इसी से यहाँ एक जीव की अपेक्षा मिथ्यादृष्टि के
विभंगज्ञान का उत्कृष्टकाल कुछ कम तेंतीस सागरोपम कहा है।
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