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________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा..... चतुर्थ अध्याय........{212} जघन्यकाल अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्टकाल पूर्व कोटि२८० पृथक्त्व से कुछ अधिक तीन पल्योपम होता है । सासादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवी मनुष्यों का सामान्य अपेक्षा से जघन्यकाल एक समय है और उत्कृष्टकाल अन्तर्मुहूर्त है । एक जीव की अपेक्षा जघन्यकाल एक समय है और उत्कृष्टकाल छः आवलिका है। सम्यग्मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवर में सभी जीवों की अपेक्षा और एक जीव की अपेक्षा जघन्यकाल और उत्कृष्टकाल अन्तर्मुहूर्त है। असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवी मनुष्य सामान्यतः सभी कालों में होते हैं । एक जीव की अपेक्षा जघन्यकाल अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्टकाल साधिक' तीन पल्योपम है। संयतासंयत आदि शेष गुणस्थानों का काल, काल-अनुयोगद्वार में सामान्य रूप से बताए अनुसार समझना चाहिए । देवगति में मिथ्यादृष्टि देव सामान्यतया सर्व कालों में होते हैं । एक देव की अपेक्षा मिथ्यादृष्टि गुणस्थान का जघन्यकाल अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्टकाल इकतीस सागरोपम है। सासादनसम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टि का काल, काल-अनुयोगद्वार में जो सामान्य रूप से कथन किया है, वही मानना चाहिए। असंयतसम्यग्दृष्टि देव सामान्यतः सभी काल में होते हैं । देवनिकाय में एक जीव की अपेक्षा असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान का जघन्यकाल अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट काल तेंतीस सागरोपम है। ___ काल-अनुयोगद्वार में इन्द्रियमार्गणा की अपेक्षा से मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवर्ती एकेन्द्रिय जीव सामान्यतया सभी काल में पाए जाते हैं । एक जीव की अपेक्षा जघन्यकाल एक क्षुद्रभवग्रहण परिमाण है और उत्कृष्टकाल अनन्त है, जिसका परिमाण असंख्यात पुद्गल परावर्तन है । मिथ्यादृष्टि विकलेन्द्रिय जीव सामान्यतया सभी कालों में पाए जाते हैं । विकलेन्द्रिय एक जीव की अपेक्षा मिथ्यादृष्टि गुणस्थान का जघन्यकाल क्षुद्रभवग्रहण परिमाण है और उत्कृष्टकाल'८२ संख्यात हजार वर्ष है। पंचेन्द्रिय मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवी जीव सामान्यतः सभी काल में होते हैं । पंचेन्द्रिय एक जीव विशेष की अपेक्षा से मिथ्यात्व गुणस्थान का जघन्यकाल अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्टकाल पूर्व कोटि पृथक्त्व से अधिक हजार सागरोपम है । पंचेन्द्रिय जीवों के सम्बन्ध में शेष गुणस्थानों का काल, काल-अनुयोगद्वार में सामान्य रूप से जैसा कहा है, वैसा मानना चाहिए। कायमार्गणा में पृथ्वी, जल, अग्नि और वायुकाय का सभी जीवों की अपेक्षा मिथ्यादृष्टि गुणस्थान का काल सम्पूर्ण काल है। .. एक जीव की अपेक्षा से जघन्यकाल क्षुद्रभवग्रहण परिमाण और उत्कृष्टकाल संख्यात लोक परिमाण है। वनस्पतिकायिक जीवों में एकेन्द्रिय के समान ही समझना चाहिए । त्रसकायिक मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवी जीव सामान्यतः सभी कालों में पाए जाते हैं । एक जीव की अपेक्षा से जघन्यकाल अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्टकाल पूर्व कोटि पृथक्त्व अधिक दो हजार सागरोपम है। शेष गुणस्थानों का काल पंचेन्द्रियों के समान मानना चाहिए। योगमार्गणा में सभी जीवों की अपेक्षा से सामान्यतः वचनयोगी और मनोयोगी मिथ्यादृष्टि, असंयतसम्यग्दृष्टि, संयतासंयत, अप्रमत्तसंयत और सयोगी केवली गुणस्थानवी जीव सभी कालों में होते है । इन गुणस्थानों में एक जीव की अपेक्षा जघन्यकाल एक२८३ समय है और उत्कृष्टकाल अन्तर्मुहूर्त है । चूंकि मनोयोग का उत्कृष्टकाल अन्तर्मुहूर्त से अधिक नहीं होता है, अतः मिथ्यादृष्टि गुणस्थान का काल यहाँ उसी अपेक्षा से कहा गया है। सासादनसम्यग्दृष्टि का काल, काल-अनुयोगद्वार में सामान्य रूप से जो कथन किया है, वही मानना चाहिए। सम्यग्मिथ्यादृष्टि गुणस्थान का सभी जीवों की अपेक्षा जघन्यकाल एकर४ समय और २८० यहाँ पूर्व कोटि पृथक्त्व से सैंतालीस पूर्व कोटियाँ ग्रहण किया है । यद्यपि पृथक्त्व यह तीन से ऊपर और नौ से नीचे की संख्या का द्योतक है, तथापि यहाँ बाहुलय की अपेक्षा पृथक्त्व पद से सैंतालीस ग्रहण किया है। २८१ यहाँ साधिक पद से पूर्व कोटि का त्रिभाग लिया गया है । एक पूर्व कोटि के आयुवाले जिस मनुष्य ने त्रिभाग में मनुष्यायु का बन्ध किया, फिर अन्तर्मुहूर्त में सम्यक्त्व पूर्वक्षायिक सम्यग्दर्शन को प्राप्त किया और आयु के अन्त में मर कर तीन पल्य की आयु के साथ उत्तम भोग भूमि में पैदा हुआ उसके चौथा गुणस्थान का उत्कृष्टकाल प्राप्त होता है। २८२ लगातार दो इन्द्रिय, तेइन्द्रिय या चौरिन्द्रिय होने का उत्कृष्टकाल संख्यात हजार वर्ष है । इसलिए इनका उत्कृष्टकाल उक्त परिमाण कहा है। जघन्यकाल एक समय और उत्कृष्टकाल अनन्त है । जिसका परिमाण असंख्यात पुद्गल परावर्तन है। २८३ मनोयोग, वचनयोग और काययोग का जघन्यकाल एक समय योगपरावृत्ति, गुणपरावृत्ति, मरण और व्याघात इस चार के आधार पर से बन जाता है। इनमें से मिथ्यादृष्टि, असंयतसम्यग्दृष्टि, संयतासंयत और प्रमत्तसंयत में चारों प्रकार सम्भव है । अप्रमत्तसंयत के व्याघात बिना तीन प्रकार सम्भव है, क्योंकि व्याघात और अप्रमत्त भाव का परस्पर में विरोध है और सयोगी केवली के एक योग परावृत्ति से जघन्यकाल एक समय प्राप्त होना सम्भव है। २८४ मरण के बिना शेष तीन प्रकार से जहाँ जघन्यकाल एक समय घटित कर लेना चाहिए। Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001733
Book TitlePrakrit evam Sanskrit Sahitya me Gunsthan ki Avadharana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarshankalashreeji
PublisherRajrajendra Prakashan Trust Mohankheda MP
Publication Year2007
Total Pages566
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, Soul, & Spiritual
File Size20 MB
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