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प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा......
पंचम अध्याय........{277} (३) सर्वविरति गुणश्रेणी : इस गुणश्रेणी की व्यवस्था ऊपर देशविरति गुणश्रेणी तुल्य यथावत् जानना चाहिए ।
(४) अनन्तानुबन्धी विसंयोजना गुणश्रेणी : उपशमश्रेणी अथवा क्षपकश्रेणी के सम्मुख हुआ जीव चौथे, पांचवें, छठवें तथा सातवें गुणस्थानों में से किसी भी गुणस्थान में अनन्तानुबन्धी कषाय की विसंयोजना करने अर्थात् उनका क्षय करने में तत्पर हुआ हो, तो उस समय तीन करण में से दूसरे अपूर्वकरण के प्रथम समय से अनन्तानुबन्धी कषाय एवं मिथ्यात्वमोह-मिश्रमोह और सम्यक्त्वमोह सहित सात कर्मप्रकृतियों के क्षय करने हेतु गुणश्रेणी प्रारम्भ होती है, और तीसरे अनिवृत्तिकरण के समाप्त होते ही अनन्तानुबन्धी चतुष्क एवं दर्शनमोह त्रिक का सर्वथा क्षय हो जाता है। उनके क्षय होते ही इन सात कर्मों की गुणश्रेणी भी समाप्त हो जाती है । अनन्तानुबन्धी की विसंयोजना होने के बाद तुरंत जीव वर्धमान या हीयमान परिणाम वाला नहीं होता है, परंतु स्वभावस्थ (अवस्थित परिणाम वाला) होता है, अतः उसके पश्चात् गुणश्रेणी समाप्त हो जाती है।
(५) दर्शनमोह क्षपक गुणश्रेणी : चतुर्थ से लेकर सातवें गुणस्थान तक किसी भी गुणस्थान में तीनों दर्शनमोहनीय कर्म की प्रकृतियों का क्षय करने के लिए यथाप्रवृत्तकरणादि तीन करण होते हैं । उस समय दूसरे अपूर्वकरण के प्रथम समय से सात कर्म की गुणश्रेणी प्रारम्भ होती है, जो तीसरे अनिवृत्तिकरण के अन्तिम भाग में समाप्त होती है। पुनः सम्यक्त्व मोहनीय की गुणश्रेणी अनिवृत्तिकरण का किंचित् काल शेष रहते उपान्त्य स्थितिखण्ड का घात होने तक होती है । मिथ्यात्वमोह तथा मिश्रमोह की गुणश्रेणी यहाँ प्रारम्भ नहीं होती है, क्योंकि इन दोनों में मिथ्यात्व मोह कर्म के प्रदेशों का मिश्रमोह तथा सम्यक्त्व मोह में और मिश्रमोह कर्म के प्रदेशों का सम्यक्त्व मोह में प्रक्षेपण किया जाता है, किन्तु गुणश्रेणी तो स्वस्थान के कर्मप्रदेशों के प्रक्षेपणावाली होती है।
(६) चारित्रमोहोपशम गुणश्रेणी : चारित्र मोहनीय कर्म का सर्वथा उपशम करने के लिए यथाप्रवृत्तादि तीन करण में से दूसरे अपूर्वकरण रूप आठवें गुणस्थान के प्रथम समय के सात कर्मों की गुणश्रेणी प्रारम्भ होती है, किन्तु मोहनीय कर्म की उत्तरप्रकृतियों की गुणश्रेणियाँ तो नवें गुणस्थान में ही अलग-अलग समय में समाप्त होती है । ज्ञानावरणीयादि छः कर्मों की गुणश्रेणी दसवें सूक्ष्मसंपराय गुणस्थान के पर्यन्त समय में ही समाप्त होती है।
(७) उपशान्तमोह गुणश्रेणी : यह गुणश्रेणी ज्ञानावरणीयादि छः कर्मों की होती है । यह उपशान्तमोह के प्रथम समय से पर्यन्त समय तक प्रवर्तमान रहती है और उसके पश्चात् पतित अवस्था में भी गुणश्रेणी (असंख्यगुणा कर्म प्रदेशों की निर्जरा की अपेक्षा से) अवश्य जारी रहती है । आयुष्य का क्षय होने के कारण से यदि यह गुणस्थान चला जाए, तो गुणश्रेणी भी सर्वथा समाप्त हो जाती है ।
(८) मोहक्षपक गुणश्रेणी : क्षपक श्रेणी में आठवें अपूर्वकरण गुणस्थान के प्रथम समय से सात कर्मों के क्षय की गुणश्रेणी प्रारम्भ होती है और इसकी समाप्ति दसवें गुणस्थान के पर्यन्त समय में होती है, परंतु मोहनीय कर्म की उत्तर-प्रकृतियों की गुणश्रेणियाँ अपनी-अपनी अन्तिम आवलिका शेष रहने तक अलग-अलग समयों में अनिवृत्तिकरण गुणस्थान में ही समाप्त हो जाती है।
(E) क्षीणमोह गुणश्रेणी : यह गुणश्रेणी ज्ञानावरणीयादि छः कर्मों की होती है । यह क्षीणमोह गुणस्थान में प्रथम समय से प्रारम्भ होती है और क्षीणमोह गुणस्थान के पर्यन्त समय में नाम, गोत्र और वेदनीय-इन कर्मों की गुणश्रेणी समाप्त हो जाती है; तथा ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय और अन्तराय-इन तीन कर्मों की गुणश्रेणी क्षीणमोह गुणस्थान का संख्याता भाग व्यतीत होकर अन्तिम संख्यातवाँ भाग शेष रहने पर, जब सर्व अपवर्तना का प्रसंग आता है, तब समाप्त होती है ।
(१०) सयोगी गुणश्रेणी : सयोगीकेवली गुणस्थानवर्ती आत्मा को केवली समुद्घात के प्रथम समय से लेकर सयोगीकेवली गुणस्थान के पर्यन्त समय तक नाम, गोत्र और वेदनीय- इन तीन कर्मों की (स्थिति घात सहित) गुणश्रेणी प्रवर्तमान होती है और उसके पश्चात् सयोगीकेवली गुणस्थान के पर्यन्त समय में समाप्त हो जाती है ।
(११) अयोगी गुणश्रेणी : अयोगीकेवली गुणस्थानवर्ती आत्मा को प्रदेश रचनारूप गुणश्रेणी नहीं होती है, परंतु प्रदेश
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