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प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा......
तृतीय अध्याय........{90} गतियों वाले जीवों के समान रूप से सहभागी होते हैं। संयमासंयम गुणस्थान की अपेक्षा मनुष्य तिर्यंचो के साथ सहभागी हैं। प्रारम्भ के पांच गुणस्थानों को छोड़कर शेष गुणस्थान मात्र मनुष्यगति में ही पाए जाते हैं। अतः शेष गुणस्थान के स्वामी मनुष्यों को शुद्ध कहा गया है।
गतिमार्गणा के पश्चात् इन्द्रियमार्गणा में गुणस्थानों का निरूपण किया गया है। इन्दन अर्थात् ऐश्वर्यशाली होने से इन्द्र शब्द का अर्थ आत्मा है। इन्द्र के लिंग को (चिन्ह) इन्द्रिय कहते हैं। इन्द्रियाँ नामकर्म के द्वारा रची जाती हैं। वे दो प्रकार की बताई गई हैं - द्रव्येन्द्रिय और भावेन्द्रिय । द्रव्येन्द्रिय दो प्रकार की हैं - निवृत्ति और उपकरण। जो कर्म के द्वारा रची जाती है, उसे निवृत्ति कहते हैं। वह बाह्य निवृत्ति और आभ्यन्तर निवृत्ति के भेद से दो प्रकार की हैं। उनमें प्रतिनियत चक्षु आदि इन्द्रियों के आकार रूप से परिणत हुए लोकपरिमाण अथवा उत्सेधांगुल के असंख्यातवें भागपरिमाण विशुद्ध आत्म प्रदेशों की रचना को आभ्यन्तर निर्वृत्ति कहते हैं। अभिप्राय यह है कि स्पर्शक्षेत्र इन्द्रिय की आभ्यन्तर निर्वृत्ति लोक परिमाण आत्म प्रदेशों में तथा अन्य चार इन्द्रियों की आभ्यन्तर निर्वृत्ति उत्सोघांगुल के असंख्यातवें भाग परिमाण प्रदेशों में होती है। उन्हीं आत्म प्रदेशों में इन्द्रिय नाम को धारण करने वाला व प्रतिनियत आकार से युक्त जो पुद्गल समूह होता है, उसे बाह्य निर्वृत्ति कहते हैं। श्रोत्र इन्द्रिय का आकार यव की नली के समान, चक्षु इन्द्रिय का मसूर के समान, रसना इन्द्रिय का आधे चन्द्रमा के समान, घ्राण इन्द्रिय का कदम्ब के फूल के समान और स्पर्श इन्द्रिय का आकार अनेक प्रकार का है। जो निर्वृत्ति उपकार करती हैं, उसे उपकरण इन्द्रिय कहते हैं। उसके भी बाह्य और आभ्यंतर-ऐसे दो भेद हैं। उनमें चक्षु इन्द्रिय में जो कृष्ण और शुक्ल मण्डल देखा जाता है, वह चक्षु इन्द्रिय का आभ्यन्तर उपकरण तथा पलक और बरौनी (रोमसमूह) आदि उसका बाह्य उपकरण है।
भावेन्द्रिय दो प्रकार की है - लब्धि और उपयोग । जो इन्द्रिय की निवृत्ति का कारणभूत क्षयोपशम विशेष होता है, उसका नाम लब्धि है और उस क्षयोपशम के आश्रय से आत्मा का जो परिणाम होता है, उसे उपयोग कहा जाता है। जिस जीव को एक ही इन्द्रिय होती है, वह एकेन्द्रिय जीव कहा जाता है। वीर्यान्तराय और स्पर्शनेन्द्रियावरण कर्म के क्षयोपशम से तथा अंगोपांग नामकर्म के उदय के अवलंबन से जिसके द्वारा आत्मा पदार्थगत स्पर्श गुण को जानती है, उसे स्पर्शनेन्द्रिय कहते हैं। पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और वनस्पति-ये पांच एकेन्द्रिय जीव हैं । इन्हें स्थावर भी कहते हैं। वीर्यांतराय और रसनेन्द्रियावरण के क्षयोपशम तथा अंगोपांग नामकर्म के उदय का अवलम्बन करके जिसके द्वारा रस का ग्रहण होता है, उसे रसन-इन्द्रिय कहते हैं। जिनके स्पर्श और रसन-दो इन्द्रियाँ होती हैं, उन्हें द्वीन्द्रिय कहते है, जैसे - लट, सीप, शंख और गण्डोला आदि। वीर्यांतराय और घ्राणेन्द्रियावरण के क्षयोपशम तथा अंगोपांग नामकर्म के उदय के अवलम्बन से जिसके गन्ध का ग्रहण होता है, उसे घ्राणेन्द्रिय कहते हैं। स्पर्श, रसन, घ्राण-ये तीन इन्द्रिय जिन जीवों को होती हैं, उसे त्रीन्द्रिय कहते हैं, जैसे-कुन्थु, चींटी, खटमल, जू आदि। वीर्यान्तराय और चक्षुरिन्द्रियावरण के क्षयोपशम तथा अंगोपांग नामकर्म के उदय का आलम्बन करके जिससे रूप का ग्रहण होता है, उसे चक्षुरेन्द्रिय कहते है, उन्हें चतुरेन्द्रिय जीव कहते हैं, जैसे मकड़ी, भौंरा, मधुमक्खी, मच्छर, पतंगा आदि। वीर्यान्तराय और श्रोत्रेन्द्रियावरण कर्म के क्षयोपशम तथा अंगोपांग नामकर्म के आलम्बन से जिसके द्वारा सुना जाता है, उसे श्रोत्रेन्द्रिय कहते हैं। जिन जीवों को उक्त पांच इन्द्रियाँ होती हैं, उन्हें पंचेन्द्रिय जीव कहते हैं, जैसे-स्वेदज, संमूर्छिम, उद्भिज, औपपतिक रसजनित, अंडज, पोतज
और जरायुज आदि । जिनके इन्द्रियाँ नहीं है, वे शरीर रहित सिद्ध जीव अनिन्द्रिय है। एकेन्द्रिय जीव दो प्रकार के हैं - सूक्ष्म और बादर। उनमें बादर दो प्रकार के हैं-पर्याप्त और अपर्याप्त। सूक्ष्म एकेन्द्रिय भी दो प्रकार के हैं, पर्याप्त और अपर्याप्त। जिन जीवों को बादर नामकर्म का उदय पाया जाता है, वे बादर कहे जाते हैं । जिन जीवों को सूक्ष्मनामकर्म का उदय पाया जाता है, वे सूक्ष्म कहे जाते हैं । जो पर्याप्त नामकर्म के उदय से युक्त हैं, उन्हें पर्याप्त कहते हैं और जो अपर्याप्त नामकर्म के उदय से युक्त हैं, उन्हें अपर्याप्त कहते हैं । पर्याप्त जीव आहार पर्याप्ति, शरीर पर्याप्ति, इन्द्रियपर्याप्ति, आनपानपर्याप्ति, भाषापर्याप्ति और मनपर्याप्ति-इन छः पर्याप्तिओं को पूर्ण करके ही जो मरण को प्राप्त होते है, वे पर्याप्त कहलाते हैं तथा जो इन पर्याप्तिओं को पूर्ण किए बिना ही मृत्यु को प्राप्त होते हैं, उन्हें अपर्याप्त कहते है । द्वीन्द्रिय जीव दो प्रकार के हैं-पर्याप्त और अपर्याप्त । त्रीन्द्रिय जीव दो प्रकार के
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