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प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा......
तृतीय अध्याय........{91) हैं-पर्याप्त और अपर्याप्त । पंचेन्द्रिय जीव दो प्रकार के हैं, संज्ञी और असंज्ञी । संज्ञी जीव दो प्रकार के हैं-पर्याप्त और अपर्याप्त। असंज्ञी जीव दो प्रकार के है-पर्याप्त और अपर्याप्त ।
इन्द्रियमार्गणा के अन्तर्गत एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, असंज्ञी पंचेन्द्रिय और संज्ञी पंचेन्द्रिय जीव आते हैं। एकेन्द्रिय से लेकर असंज्ञी पंचेन्द्रिय तक के जीवों में मात्र मिथ्यादृष्टि गुणस्थान नामक प्रथम गुणस्थान होता है । संज्ञी पंचेन्द्रिय जीवों में मिथ्यात्व से लेकर अयोगीकेवली तक के सभी गुणस्थान होते हैं। केवलियों की भावेन्द्रियां सर्वथा नष्ट हो गई हैं और द्रव्य इन्द्रियों का व्यापार भी बंद हो गया है, परन्तु छद्मस्थ रूप अवस्था में भावेन्द्रियों के निमित्त से उत्पन्न हुई द्रव्येन्द्रियों की सत्ता की अपेक्षा उन्हें पंचेन्द्रिय कहा गया है। एकेन्द्रियादि जाति भावों से रहित जीव अनिन्द्रिय होते हैं, क्योंकि उनके द्रव्य और भाव कर्म नष्ट हो चुके हैं । सिद्धजीव अनिन्द्रिय हैं ।
जो जीव पृथ्वीकायिक नामकर्म के उदयवाले हैं, उन्हें पृथ्वीकायिक कहा जाता है। इसी प्रकार जलकाय आदि को भी समझना चाहिए। स्थावर नामकर्म के उदयवाले स्थावर जीव कहे जाते हैं। त्रसकाय नामकर्म के उदय वाले जीव त्रसकायिक कहे जाते है। जिनका त्रस और स्थावर नामकर्म नष्ट हो गया हैं, उन सिद्धों को अकायिक कहा जाता है । जिस प्रकार अग्नि के सम्बन्ध से सुवर्ण कीट और कालिमा रूप, बाह्य और आभ्यन्तर-दोनों प्रकार के मल से रहित हो जाता है, उसी प्रकार ध्यान रूप अग्नि के सम्बन्ध से जीव, काय और कर्मबन्धन से मुक्त होकर कायरहित हो जाता है। पृथ्वीकाय के दो भेद माने गए हैं, बादर और सूक्ष्म। बादर पृथ्वीकाय के भी दो भेद हैं-पर्याप्त और अपर्याप्त । इसी प्रकार सूक्ष्म पृथ्वीकाय के भी दो भेद हैं - पर्याप्त और अपर्याप्त। इसी प्रकार जलकाय, अग्निकाय और वायुकाय के बारे में भी जानना चाहिए। वनस्पतिकाय के जीव दो प्रकार से होते हैं - प्रत्येक शरीर और साधारण शरीर। प्रत्येक वनस्पतिकाय दो प्रकार से हैं - पर्याप्त और अपर्याप्त। साधारण वनस्पतिकाय दो प्रकार से हैं - बादर और सूक्ष्म । बादर साधारण वनस्पतिकाय दो प्रकार से हैं - पर्याप्त और अपर्याप्त। सूक्ष्म साधारण वनस्पतिकाय दो प्रकार से हैं - पर्याप्त और अपर्याप्त । पृथ्वीकाय, जलकाय, अग्निकाय, वायुकाय और वनस्पतिकाय को स्थावर माना है । जो त्रसनामकर्म के उदयवाले हैं, वे त्रसकायिक कहे जाते हैं । एकन्द्रिय सभी जीव स्थावर हैं और शेष अर्थात् द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय जीव त्रस कहे जाते हैं । पांचो स्थावर कायवाले जीवों को मात्र मिथ्यादृष्टि गुणस्थान होता है । त्रसकाय के जावों में मिथ्यादृष्टि गुणस्थान से लेकर अयोगीकेवली गुणस्थान तक के सभी गुणस्थान पाए जाते हैं । स्थावर और त्रसकाय से रहित कायरहित अर्थात् अकायिक जीव भी होते हैं। सिद्ध जीव अकायिक हैं।
योगमार्गणा में मनोयोगी, वचनयोगी और काययोगी जीव होते हैं।.भावमन की उत्पत्ति के लिए जो प्रयत्न होता है उसे मनोयोग, भाषा की उत्पत्ति के लिए जो प्रयत्न होता है उसे वचनयोग, काया की क्रिया के लिए जो प्रयत्न होता है उसे काययोग कहते हैं। जिसको मनोयोग होता है, उसे मनोयोगी कहते हैं । ऐसे ही वचनयोगी और काययोगी के विषय में भी समझ लेना चाहिए। जिन जीवों को किसी भी प्रकार का योग नहीं है, वे जीव अयोगी कहलाते हैं। मनोयोग चार प्रकार का है - सत्यमनोयोग, मृषामनोयोग, सत्य-मृषामनोयोग और असत्य-अमृषा मनोयोग । सत्य के विषय में होने वाले मन के योग को सत्य मनोयोग कहते हैं । असत्य के विषय में होने वाले मन के योग को मृषामनोयोग कहते हैं । जो योग सत्य और मृषा-इन दोनों के मिश्रण से होता है, उसे सत्य-मृषामनोयोग कहते हैं । जो योग असत्य और अमृषा इन दोनों योगों से बनता है, उसे असत्य-अमृषा मनोयोग कहते हैं। अब मनोयोग का गुणस्थान में निरूपण करते हुए कहा गया है कि सत्यमनोयोग तथा असत्य-अमृषा मनोयोग में मिथ्यादृष्टि गुणस्थान से लेकर सयोगीकेवली गुणस्थान तक के सभी गुणस्थान सम्भव होते हैं। मृषामनोयोग और सत्यमृषामनोयोगी में मिथ्यादृष्टि गुणस्थान से लेकर क्षीणकषायवीतराग छद्मस्थ तक के सभी गुणस्थान पाए जाते हैं। वचनयोग चार प्रकार के हैं - सत्यवचनयोग, मृषावचनयोग, सत्य-मृषा वचनयोग और असत्य-अमृषा वचनयोग । जनपद सत्य आदि दस प्रकार के सत्य वचन के निमित्त से जो योग होता है, उसे सत्यवचनयोग कहते हैं । असत्य वचन के निमित्त से होनेवाले वचन के योग को मृषावचनयोग कहते हैं। जो योग सत्य और मृषा दोनों योगों के मिश्रण से होता है, उसे सत्य-मृषावचनयोग कहते हैं। जो असत्य और
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