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प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा.....
तृतीय अध्याय........{92} अमृषा-दोनों के योग से बनता है, उसे असत्य-अमृषा वचनयोग कहते हैं। सत्य वचनयोग और असत्य-अमृषा वचनयोग वाले को मिथ्यादृष्टि गुणस्थान से लेकर सयोगीकेवली तक के सभी गुणस्थान सम्भव होते हैं। मृषावचनयोग और सत्यमृषा वचनयोग वाले जीवों में मिथ्यादृष्टि से लेकर क्षीण कषाय वीतराग छद्मस्थ तक के सभी गुणस्थान पाए जाते हैं।
काययोग सात प्रकार के होते हैं - औदारिक काययोग, औदारिक मिश्रकाय योग, वैक्रिय काययोग, वैक्रिय मिश्र काययोग, आहारक काययोग, आहारक मिश्र काययोग और कार्मण काययोग।
१. औदारिक शरीर द्वारा उत्पन्न हुई शक्ति से जीव के प्रदेश में परिस्पन्दन का कारणभूत जो प्रयत्न होता है, उसे औदारिक काययोग कहते हैं।
२. औदारिक शरीर जब तक पूर्ण नहीं होता है, तब तक मिश्र कहलाता है। उसके निमित्त से होनेवाले योग को औदारिकमिश्रकाययोग कहते हैं।
३. जो शरीर अणिमा, महिमा आदि अनेक ऋद्धियों से युक्त होता है, उसे वैक्रियशरीर और उसके निमित्त से होने वाले योग को वैक्रियकाययोग कहते हैं।
४. वैक्रियमिश्र को औदारिकमिश्र की तरह समझना चाहिए।
५. जिसके द्वारा आत्मा सूक्ष्म पदार्थों का आहरण (ग्रहण) करता है, उसे आहारक शरीर और आहारक शरीर से जो योग होता है, उसे आहारककाययोग कहते हैं।
औदारिकमिश्र की तरह समझना चाहिए । आहारक शरीर सुक्ष्म होने के कारण गमन करते समय वैक्रियशरीर के समान न तो पर्वतों से टकराता है, न शस्त्रों से छिदता है और न अग्नि से जलता है।
७. ज्ञानावरणादि आठ प्रकार के कर्मों के स्कन्ध को कार्मण शरीर कहते हैं और उसके द्वारा होनेवाले योग को कार्मणकाययोग कहते हैं।
औदारिककाययोग और औदारिकमिश्र काययोग तिर्यंच और मनुष्यों को होते हैं। वैक्रियकाययोग और वैक्रियमिश्रकाययोग देव और नारकी को होते हैं। आहारक काययोग और आहारक मिश्रकाययोग ऋद्धि प्राप्त प्रमत्तसंयतो को ही होते हैं। कार्मण काययोग विग्रहगति को प्राप्त जीवों को तथा समुद्घात को प्राप्त केवली को होता है। औदारिक काययोग और औदारिक मिश्र काययोग में मिथ्यादृष्टि गुणस्थान से लेकर सयोगीकेवली तक के सभी गुणस्थान पाए जाते हैं। विशेष यह है कि मात्र औदारिक मिश्र काययोग में प्रथम चार अपर्याप्त गुणस्थान ही होते हैं। वैक्रिय काययोग और वैक्रियमिश्रकाययोग में मिथ्यादृष्टि से लेकर असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान तक के चार गुणस्थान ही पाए जाते हैं। विशेष यह है कि सम्यग्मिथ्यादृष्टि गुणस्थान पर्याप्तदशा में ही होता है और वैक्रियमिश्र काययोग पर्याप्त अवस्था में ही होता है। आहारक काययोग और आहारकमिश्रकाययोग मात्र एक प्रमत्तसंयत गणस्थान में ही होता है। कार्मण काययोग मिथ्यादष्टि गुणस्थान से लेकर सयोगीकेवली तक के सभी गुणस्थानवर्ती जीवों में ही होता है। विशेष यह कि पर्याप्त अवस्था में संयतासंयतादि गुणस्थानों में कार्मणकाययोग नहीं पाया जाता है। पर्याप्त अवस्था में वह समुद्घात के समय ही पाया जाता है। क्षयोपशम की अपेक्षा से एकरूपता को प्राप्त तीनों योगों में मिथ्यादृष्टि गुणस्थान से लेकर सयोगीकवली तक के तेरह गुणस्थान पाए जाते हैं । नारकी जीव मिथ्यादृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान में कभी पर्याप्त होते हैं और कभी अपर्याप्त होते हैं। सासादन एवं सम्यग्मिथ्यादृष्टि गुणस्थान में नारकी जीव पर्याप्त ही होते हैं, क्योंकि नारकी जीवों को अपर्याप्त अवस्था में इन दो गुणस्थानों की उत्पत्ति के निमित्तभूत परिणामों की संभावना नहीं हैं। वह सामान्य कथन हुआ। प्रथम पृथ्वी के जीव के गुणस्थान सामान्य नारकी जीवों के समान होते हैं। दूसरी पृथ्वी से सातवीं नरक तक के जीव मिथ्यादृष्टि गुणस्थान में कभी पर्याप्त होते हैं और कभी अपर्याप्त भी होते हैं। मिथ्यादृष्टि जीवों की उत्पत्ति प्रथम पृथ्वी को छोड़कर शेष छः पृथ्वियों में ही पाई जाती है। सासादन सम्यग्दृष्टि, सम्यग्मिथ्यादृष्टि और असंयत सम्यग्दृष्टि गुणस्थान दूसरी पृथ्वी से लेकर सातवीं पृथ्वी तक के पर्याप्त नारकी जीवों
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