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________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा...... द्वितीय अध्याय........{55} वारों का विचार किया गया है। इस प्रकीर्णक में गुणस्थान सिद्धान्त सम्बन्धी विचारणा का अभाव है। ९. महाप्रत्याख्यान २३ और गुणस्थान इसी क्रम में नवाँ प्रकीर्णक महाप्रत्याख्यान है। महाप्रत्याख्यान प्रकीर्णक का सम्बन्ध भी मुख्यतया समाधिमरण से है। हमें इस प्रकीर्णक ग्रन्थ में भी गुणस्थान सिद्धान्त सम्बन्धी कोई चर्चा परिलक्षित नहीं होती है। मात्र एक स्थान पर यह कहा गया है कि मैं त्रिदंड से विरत होकर, त्रिकरणों से शुद्ध होकर, तीन शल्यों से निःशल्य होकर, अप्रमत्तभाव से, त्रिविध रूप से, महाव्रतों की रक्षा करता हूँ, किन्तु इस उल्लेख को गुणस्थान सिद्धान्त से नहीं जोड़ा जा सकता है। १०. वीरस्तव और गुणस्थान अन्तिम दशम प्रकीर्णक के रूप में वीरस्तव का नाम आता है। वीरस्तव मूलतः भगवान महावीर की स्तुतिरूप है और उनके विभिन्न नामों का उल्लेख करता है। भगवान के विभिन्न नामों में उपशान्तमोह, क्षीणमोह और केवली जैसे नाम आए हैं, किन्तु ये सब भगवान के विशेषण के रूप में ही है। इनका गुणस्थान सिद्धान्त से कोई सम्बन्ध नहीं है। इस प्रकार हम देखते हैं कि प्रकीर्णक-साहित्य में कहीं भी गुणस्थान सम्बन्धी चर्चा उपलब्ध नहीं होती है। यद्यपि प्रकीर्णक में वीरस्तव आदि कुछ प्रकीर्णक ऐसे अवश्य है, जो परवर्तीकालीन माने जाते हैं, फिर भी इन सभी प्रकीर्णकों में गुणस्थान सम्बन्धी विचारणा का अभाव यही सूचित करता है कि श्वेताम्बर परम्परा में, आगमयुग में, गुणस्थान सिद्धान्त सम्बन्धी विचारणा को विशेष महत्व प्राप्त नहीं हुआ था। गुणस्थान सिद्धान्त सम्बन्धी चर्चा विशेषरूप से कर्मसाहित्य के रचनाकाल में ही विकसित हुई है, क्योंकि अंग, उपांग, छेद, मूल तथा चूलिकासूत्रों में और प्रकीर्णकों में समवायांग के एक अपवाद को छोड़कर गुणस्थान सिद्धान्त सम्बन्धी विचारणा का अभाव है। समवायांग में भी मात्र उन चौदह नामों का जीवस्थान के रूप में उल्लेख मिलता है। अन्य आगमों में जहाँ गुणस्थानों के नामों के समरूप कुछ नाम मिलते हैं, वे ही सामान्य अर्थ में ही प्रयुक्त हुए हैं। सम्पूर्ण आगम साहित्य में हमें एक भी स्थल ऐसा नहीं मिला, जहाँ गुणस्थान शब्द का प्रयोग हुआ हो। समवायांग में भी जहाँ इन चौदह अवस्थाओं का उल्लेख है, वहाँ भी उन्हें गुणस्थान नहीं कहा गया है। वहाँ उनके लिए जीवस्थान शब्द का प्रयोग हुआ है। परवर्तीकाल में विशेष रूप से कर्मसाहित्य में गुणस्थान सिद्धान्त को जो महत्व मिला उसका अर्द्धमागधी आगम साहित्य में अभाव ही परिलक्षित होता है। - नियुक्ति साहित्य और गुणस्थान सिद्धान्त जैन परम्परा में आगमों की व्याख्या के रूप में विपुल साहित्य का सर्जन हुआ है। आगमिक व्याख्याओं के अन्तर्गत नियुक्ति, भाष्य, चूर्णि, टीका, वृत्ति और टब्बे आते हैं। आगमों के व्याख्या साहित्य के रूप में सबसे पहले नियुक्तियों की रचना हुई। नियुक्तियाँ मुख्यरूप से आगमों के पारिभाषिक शब्दों के अर्थ का विभिन्न दृष्टियों से स्पष्टीकरण करती है। इसप्रकार वे आगमिक शब्दों की प्रथम व्याख्या है। इसके अतिरिक्त वे आगम की विषयवस्तु का संक्षिप्त विवरण भी प्रस्तुत करती है। जहाँ तक इन नियुक्तियों के लेखक का प्रश्न है, परम्परा के अनुसार इनके लेखक आचार्य भद्रबाहु को माना जाता है। यद्यपि इन नियुक्तियों में उपलब्ध कुछ परवर्तीकालीन संदर्भो को देखते हुए विद्वानों ने इन्हें प्रथम भद्रबाहु की कृति मानने से इन्कार कर दिया है। कुछ विद्वानों ने इन्हें वराहमिहिर के भाई आचार्य भद्रबाहु द्वितीय की कृति माना है, किन्तु इस सन्दर्भ में डॉ. सागरमल जैन आदि विद्वानों ने अपनी आपत्ति प्रस्तुत की है। डॉ. सागरमल जैन ने अपने लेख 'नियुक्ति साहित्य एक पुनर्चिन्तन' में नियुक्तियों को गौतमगौत्रीय आर्य भद्र की कृति माना है। उनके अनुसार नियुक्तियों का रचनाकाल विक्रम की प्रथम-द्वितीय शताब्दी १२३ वही. १२४ वही. Jain Education Intemational Jain Education Interational For Private & Personal Use Only For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001733
Book TitlePrakrit evam Sanskrit Sahitya me Gunsthan ki Avadharana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarshankalashreeji
PublisherRajrajendra Prakashan Trust Mohankheda MP
Publication Year2007
Total Pages566
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, Soul, & Spiritual
File Size20 MB
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