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प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा...
द्वितीय अध्याय......{54}
३. भक्तपरिज्ञा और गुणस्थान :
प्रकीर्णकों में तीसरे क्रम पर भक्तपरिज्ञा का स्थान है। इस ग्रन्थ की विषयवस्तु भी समाधिमरण से सम्बन्धित है। यह ग्रन्थ श्रावक और मुनि दोनों के लिए ही समाधिमरण ग्रहण करने का उल्लेख करता है। इस ग्रन्थ में अविरतसम्यग्दृष्टि, देशविरति, संयतविरत आदि के उल्लेख उपलब्ध है, किन्तु ये सभी उल्लेख गुणस्थान सिद्धान्त से सम्बन्धित प्रतीत नहीं होते है। इनका उल्लेख अपने सामान्य अर्थ में ही हुआ है । ४. संस्तारक१८ और गुणस्थान :___संस्तारक नामक चतुर्थ प्रकीर्णक भी समाधिमरण से सम्बन्धित है। इस प्रकीर्णक में मिथ्यादृष्टि, संयमी, क्षीणकर्मरज-ऐसे अपने सामान्य अर्थ में प्रयुक्त तीन पद उपलब्ध होते हैं, किन्तु इनका सम्बन्ध गुणस्थान सिद्धान्त से नहीं है। ये शब्द अपने सामान्य अर्थ में ही प्रयुक्त हुए हैं। ५. तंदुलवैचारिक और गुणस्थान :
प्रकीर्णकों के क्रम में तंदुलवैचारिक का स्थान पाँचवाँ है। यह ग्रन्थ मानव जीवन को अवस्थाओं के आधार पर दस भागों में विभक्त करके उसकी चर्चा करता है। इस ग्रन्थ में स्त्रियों की चर्चा के प्रसंग में एक स्थान पर मात्र प्रमत्तभाव, ऐसा पद उपलब्ध होता है। इस ग्रन्थ में कहीं भी गुणस्थान सम्बन्धी कोई भी विचारणा उपलब्ध नहीं होती है । ६. चन्द्रवेद्यक२० और गुणस्थान :
इसके पश्चात् षष्ट प्रकीर्णक का नाम चन्द्रवेद्यक है। यह प्रकीर्णक भी जीवन की अन्तिम आराधना अर्थात् समाधिमरण से सम्बन्धित है। इस ग्रन्थ में मिथ्यात्व, सम्यक्त्व, प्रमाद आदि शब्द अवश्य हैं, किन्तु वे गुणस्थान सिद्धान्त से सम्बन्धित नहीं है। इस ग्रन्थ की गाथा क्रमांक १४५ में यह बताया गया है कि उपशान्तकषायवाला जीव अनन्तचतुष्टयी उपलब्धि के निकट पहुँच कर भी पुनः पतित हो जाता है, तो फिर जिस व्यक्ति में थोड़ा-सा भी कषाय अवशिष्ट है, उसका कैसे विश्वास किया जा सकता है, किन्तु यहाँ यह चर्चा इसी रूप में आई है कि यदि कषाय की थोड़ी-सी भी सत्ता शेष रहती है, तो पतन की संभावनाएँ समाप्त नहीं होती है। हमारी दृष्टि में यह एक सामान्य उल्लेख ही है। इसे गुणस्थान से सम्बन्धित कर पाना कठिन है । ७. देवेन्द्रस्तव और गुणस्थान :
प्रकीर्णक-साहित्य में सप्तम क्रम पर देवेन्द्रस्तव का उल्लेख है। यह ग्रन्थ मुख्यरूप से देवलोक सम्बन्धी विचारणा से परिपूर्ण है, इसीलिए सामान्यरूप से इसमें गुणस्थान सिद्धान्त सम्बन्धी विचारणा का अभाव ही है। यद्यपि ग्रन्थ की अन्तिम गाथाओं में सिद्धशीला एवं सिद्धों से सम्बन्धित विवरण है, किन्तु हमारी दृष्टि में इस चर्चा में भी गुणस्थान सम्बन्धी कोई उल्लेख उपलब्ध नहीं होता है। ८. गणिविद्या और गुणस्थान :
प्रकीर्णकों में अष्टम स्थान गणिविद्या का है। इस ग्रन्थ में मुख्यरूप से दीक्षा, विहार, केशलोच आदि के नक्षत्र, तिथि और
११७ वही. ११८ वही. ११६ वही. १२० वही. १२१ वही. १२२ वही.
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