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प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा......
षष्टम अध्याय........{414} प्रकार ही सम्भव होते है।३८६ इसी प्रकार रौद्रध्यान की चर्चा में भी यह बताया गया है कि रौद्रध्यान, मिथ्यादृष्टि गुणस्थान से लेकर पांचवें देशविरतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान तक सम्भव होता है।३६० इसी क्रम में आगे धर्मध्यान के स्वामी का उल्लेख करते हुए यह कहा गया है कि प्रमत्त और अप्रमत्त गुणस्थानवर्ती मुनि धर्मध्यान के अधिकारी होते हैं ।३६१ इसी प्रसंग में अन्य आचार्यों के मन्तव्यों के आधार पर भी कहा गया है कि सम्यग्दृष्टि से लेकर देशविरत, प्रमत्तसंयत और अप्रमत्तसंयत भी धर्मध्यान के अधिकारी माने गए हैं।३६२ धर्मध्यान के अधिकारी उपर्युक्त चारों गुणस्थानों के जीव-अधिकारी है, अतः उनके भेद के आधार पर धर्मध्यान का
भन्न कहा गया है । यद्यपि इन श्लोकों में स्पष्टरूप से गुणस्थान या गुण शब्द का उल्लेख नहीं है, फिर भी इतना निश्चित है कि यहाँ शुभचंद्र इन नामों से उन गुणस्थानों का ही उल्लेख कर रहे हैं । पुनः आचार्य शुभचंद्र ने ज्ञानार्णव के सर्ग-४१ में धर्मध्यान के फल की चर्चा करते हुए यह कहा है कि सम्यग्दृष्टि नामक चौथे गुणस्थान से लेकर सातवें अप्रमत्तसंयत गुणस्थान पर्यन्त अनुक्रम से असंख्यात-असंख्यातगुणा कर्मों का क्षय या उपशम करता है।३६३ आगे बयालीसवें सर्ग में शुक्लध्यान के अधिकारी की चर्चा करते हुए यह कहा है कि शुक्लध्यान के प्रथम चरण और द्वितीय चरण के अधिकारी ग्यारहवें और बारहवे गुणस्थानवर्ती छद्मस्थ होते है, जबकि शुक्लध्यान के तृतीय और चतुर्थ चरण के अधिकारी तेरहवें और चौदहवें गुणस्थानवर्ती केवलज्ञानी होते हैं।३६४ इसी सर्ग के अन्त में यह कहा गया है कि अयोगी परमात्मा को समुच्छिन्न क्रिया नामक चौथा शुक्लध्यान होता है।३६५ यहाँ यह भी कहा गया है कि इस अवस्था में जो तेरह कर्मप्रकृतियाँ अवशिष्ट थी, वे समाप्त हो जाती है ।३६६
. इस प्रकार हम देखते हैं कि आचार्य शभचंद्र ने चारों ध्यानों के अधिकारियों की चर्चा करते हए स्पष्ट रूप से यह बताया है कि किस गुणस्थानवी जीव, किस ध्यान के अधिकारी होते हैं। इस प्रकार उन्होंने चारों ध्यानों के सन्दर्भ में गुणस्थानों का अवतरण किया है। चाहे उन्होंने समग्ररूप से चौदह गुणस्थानों की चर्चा न की हो, किन्तु वे गुणस्थानों की अवधारणा से सुपरिचित रहे हैं । हमारी दृष्टि में ज्ञानार्णव का मुख्य प्रतिपाद्य चारों प्रकार के ध्यान ही रहे हैं, अतः उनके लिए यहाँ गुणस्थानों की समग्र चर्चा अपेक्षित नहीं थी । अपने प्रतिपाद्य विषय के अनुरूप ही गुणस्थानों का अवतरण किया गया ।
त्रगुणभद्र का आत्मानुशासन और गुणस्थान K दिगम्बर परमपरा में आचार्य गुणभद्र का आत्मानुशासन६७ एक महत्वपूर्ण कृति है। आचार्य गुणभद्र के सम्बन्ध में हमें विशेष जानकारी तो उपलब्ध नहीं होती है, किन्तु वे आचार्य जिनसेन के शिष्य थे और उन्होंने अपने आचार्य के अधूरे महापुराण को सम्पूर्ण किया था । महापुराण शक संवत् ८२० में पूर्ण हो चुका था, अतः उनका सत्ताकाल ईस्वी सन् की नवीं शताब्दी का उत्तरार्द्ध एवं दसवीं शताब्दी का पूवार्द्ध है। आत्मानुशासन के मूल ग्रन्थ के श्लोकों में तो हमें गुणस्थान सम्बन्धी कोई विवेचन
३८६ अपथ्यमपि पर्यन्ते रम्यमप्यग्रिमक्षणे । विद्धयसद्धयनमेतद्धि षड्गुणस्थान भूमिकाम् ।।३।। संयतासंयतेष्वेतच्चतुर्भेदं प्रजायते । प्रमत्तसंयतानां तु निदानरहितं त्रिधा ।।३६।।
ज्ञानार्णव, सर्ग २५ श्लोक नं. ३८,३६ ३६० कृष्णलेश्याबलोपेतं श्वध्रपातफलांकितम् । रौद्रमेतद्धि जीवानां स्यात्पच गुणभूमिकम् ।।३६।।
ज्ञानार्णव, सर्ग-२६ श्लोक-३६ ३६१ मुख्योपचारभेदेन द्वौ मुनी स्वामिनौ मतौ । अप्रमत्तप्रमत्ताख्यौ धर्मस्यैतौ यथायथम् ।।२५।। अप्रमत्तः सुसंस्थानो वज्रकायो वशी स्थिरः । पूर्ववित्संवृतो धीरो ध्याता सम्पूर्ण लक्षणः ।।२६।।
ज्ञानार्णव, सर्ग २८ श्लोक नं. २५, २६ ३६२ असंख्येयमसंख्येयं सदृष्ट्यादि गुणेऽपि च । क्षीयते क्षपकस्यैव कमजातमनुक्रमात् ।।१२।।
ज्ञानार्णव, सर्ग-४१ श्लोक-१२ ३६३ असंख्येयमसंख्येयं सदृष्ट्यादिगुणेऽपि च । क्षीयते क्षपकस्यैव कमजातमनुक्रमात् ।।
ज्ञानार्णव, सर्ग-४१ श्लोक-१२ ३६४ छस्थयोगिनामाद्ये द्वे तु शुक्ले प्रकीर्तिते । द्वे त्वन्त्ये क्षीणदोषाणां केवलज्ञान चक्षुषाम् ।।
ज्ञानार्णव, सर्ग-४२ श्लोक नं.-७ ३६५ तस्मिन्नेव क्षणे साक्षादाविर्भवति निर्मलम् । समुच्छिन्नक्रियं ध्यानमयोगिपरमेष्ठिनः ।।
ज्ञानार्णव, सर्ग-४२ श्लोक नं.-५३ ३६६ विलयं वीतरागस्य पुनन्ति त्रयोदश । चरमे समये सद्यः पर्यन्ते या व्यवस्थिताः ।।
ज्ञानार्णव, सर्ग-४२ श्लोक नं.-५४ ३६७ आत्मानुशासन, लेखक : गुणभद्रविरचित, सम्पादकः पं. बालचन्द्र सिद्धान्तशास्त्री, प्रकाशक : जैन संस्कृति संरक्षक संघ, सोलापुर
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