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प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा.....
पंचम अध्याय........{386}
दिगम्बर प्राकृत पंचसंग्रह के सप्ततिका नामक पंचम अधिकार में गुणस्थानों में बन्ध, उदय और सत्ता को लेकर विभिन्न विकल्पों की चर्चा की गई है। इसमें सर्वप्रथम मूल प्रकतियों के आधार पर विकल्पों की चर्चा की गई है और उसके पश्चात प्रकृतियों के आधार पर एक-एक गुणस्थान को लेकर कितने बन्धविकल्प, कितने उदयविकल्प और कितने सत्ताविकल्प होते है, इसकी विस्तार से चर्चा की गई है। यहाँ यह ज्ञातव्य है कि यह समस्त चर्चा भी प्राचीन सप्ततिका नामक षष्ठ कर्मग्रन्थ के प्रसंग में की जा चुकी है। यहाँ यह ज्ञातव्य है कि सप्ततिका नामक पंचसंग्रह के इस अधिकार और सप्ततिका नामक षष्ठ कर्मग्रन्थ के विवेचन में न केवल विषयवस्तु अपितु गाथागत भी बहुत कुछ समानता है, क्योंकि यह सभी चर्चा हम षष्ठ कर्मग्रन्थ में विस्तार से कर चुके है । अतः दिगम्बर प्राकृत पंचसंग्रह के प्रसंग में उस चर्चा को पुनः करना पिष्ट-पेषण या पुनरावृत्ति ही होगी । यहाँ केवल इन दोनों में किस प्रकार का अन्तर रहा हुआ है, उसकी संक्षिप्त चर्चा पंडित हीरालालजी दिगम्बर प्राकृत पंचसंग्रह की प्रस्तावना के आधार पर करके इस विवेचन में विराम देना चाहेंगे । अन्तर सम्बन्धी यह चर्चा पंडित हीरालालजी ने अपनी प्रस्तावना में निम्न रूप में की है।४४.
१. गाथांक ७ दिगम्बर-श्वेताम्बर, दोनों सप्ततिकाओं में समान हैं, पर सभाष्य सप्ततिका में उसके स्थान पर 'णव छक्कं' आदि नवीन गाथा पाई जाती है ।
२. गाथांक ८ के विषय में दोनों समान है, किन्तु सभाष्य सप्ततिका में उसके स्थान पर नवीन गाथा है । ३. गाथांक ६ की दिगम्बर-श्वेताम्बर मूल सप्ततिका से सभाष्य सप्ततिका में अर्द्ध-समता और अर्द्ध-विषमता है ।
४. गाथा क्रमांक १० (गोदेसु सत्त भंगा) सभाष्य सप्ततिका और दिगम्बर मूल सप्ततिका है, पर श्वेताम्बर सप्ततिका में वह नहीं पाई जाती है।
५. गाथा क्रमांक १५ दिगम्बर-श्वेताम्बर सप्ततिका में समान है, पर सभाष्य सप्ततिका में भिन्न है ।
६. श्वेताम्बर सप्ततिका के हिन्दी अनुवादक एवं सम्पादक 'दस बावीसे' इत्यादि गाथा १५ को तथा 'चत्तारि' आदि 'णव बन्धएस' इत्यादि गाथा १६ को मूल गाथा स्वीकार करते हुए भी उन्हें सभाष्य सप्ततिका में मल गाथा मानने से क्यों इन्कार करते है ? यह विचारणीय है।
७. गाथा १७ का उत्तरार्द्ध दिगम्बर श्वेताम्बर सप्ततिका में समान है, पर सभाष्य सप्ततिका में भिन्न है।
८. 'एक्कं च दोणि व तिण्णि' इत्यादि गाथा क्रमांक १८ न श्वेताम्बर सप्ततिका में है और न सभाष्य सप्ततिका में । इसके स्थान पर श्वेताम्बर सप्ततिका में 'एतो चउबन्धादि' इत्यादि गाथा पाई जाती है, पर सभाष्य सप्ततिका में तत्स्थानीय कोई भी गाथा नहीं पाई जाती।
६. श्वेताम्बर सचूर्णि सप्ततिका में मुद्रित गाथा २६, २७ न तो दिगम्बर सप्ततिका में ही पाई जाती है और न सभाष्य सप्ततिका में । यह बात विचारणीय है।
१०. दिगम्बर सप्ततिका में गाथा २६ 'तेरस णव चदु पण्णं' यह न तो श्वेताम्बर सप्ततिका में पाई जाती है और न सभाष्य सप्ततिका में ही । मेरे मत से मूल गाथा होनी चाहिए।
११. 'सत्तेव अपज्जता' इत्यादि ३५ संख्यावाली गाथा के पश्चात् श्वेताम्बर और दिगम्बर सप्ततिका में ‘णणंतराय तिविहमवि' इत्यादि तीन गाथाएँ पाई जाती है, किन्तु ये सभाष्य सप्ततिका में नहीं है। उनके स्थान पर अन्य ही तीन गाथाएँ पाई जाती है, जिनके आधचरण इस प्रकार है- णाणावरणे विग्घे (३३) णव छक्कं चत्तारि य (३४) और उवरयबन्धे संते (३५)
१२. श्वेताम्बर सचूर्णि सप्ततिका में गाथा ४५ के बाद 'बारस पण सट्ठसया' इत्यादि गाथा अतभाष्य गाथा के रूप में दी है । साथ में उसकी चूर्णि भी दी है । यही गाथा दिगम्बर सप्ततिका में भी सवृत्ति पाई जाती है । फिर इसे मूल गाथा क्यों नहीं माना
३४४ पंचसंग्रह, सम्पादक : पं. हीरालालजी जैन, प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ, काशी, १६६०, प्रस्तावना पृ ३०, ३१
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