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प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा......
पंचम अध्याय........{387} जाए?
१३. गाथा ४५ दिगम्बर सप्ततिका और सभाष्य सप्ततिका में पूर्वार्द्ध उत्तरार्द्ध व्यत्क्रम को लिए हए है, पर ध्यान देने की बात यह है कि वह श्वेताम्बर सचूर्णि सप्ततिका के साथ दिगम्बर सप्ततिका में एक-सी पाई जाती है ।
पं. हीरालालजी ने गाथाओं को लेकर जो यह पाठगत अन्तर प्रतिपादित किया है, उसके आधार पर कोई विशेष सैद्धान्तिक मतभेद उभरकर सामने आता हो-यह हमें परिलक्षित नहीं होता है। जो कुछ सामान्य मतभेद है, वे दोनों परम्पराओं में मिलते है - श्वेताम्बर परम्परा में वे आगमिक परम्परा तथा कर्मग्रन्थों की परम्परा के रूप में उल्लेखित है, तो दिगम्बर परम्परा में उन्हें आर्य मंक्ष और नागहस्ति की परम्परा के मतभेद कहकर चित्रित किया गया है। दूसरे प्रकार के जो मतभेद हैं. वे व्याख्या को लेकर हैं - दिगम्बर परम्परा में गुणस्थान सम्बन्धी विवेचनाओं में इस तथ्य को ध्यान में रखकर व्याख्याएँ की गई है कि जिससे स्त्रीमुक्ति या केवलीमक्ति की सिद्धि न हो । शेष विवेचनाओं में दोनों परम्पराओं में कोई विशेष मतभेद नहीं देखा जाता है।
दिगम्बर संस्कृत पंचसंग्रह और गुणस्थान
दिगम्बर प्राकृत पंचसंग्रह के अतिरिक्त इस परम्परा में संस्कृत भाषा में रचित दो पंचसंग्रह भी उपलब्ध होते हैं । इसमें प्रथम लगभग ग्यारहवीं शताब्दी के आचार्य अमितगति का पंचसंग्रह और दूसरा श्रीपालसुतढड्डा का पंचसंग्रह । जहाँ तक अमितगति के पंचसंग्रह का प्रश्न है, वह एक दृष्टि से प्राकृत पंचसंग्रह का संस्कृत रूपान्तरण ही प्रतीत होता है । यह पंचसंग्रह माणिकचंद ग्रन्थमात्मा से सन् १६२७ में प्रकाशित हुआ ।३४५ अमितगति के पंचसंग्रह की विषयवस्तु प्राकृत पंचसंग्रह के समरूप ही है । यहाँ तक कि प्रकरण आदि के नाम भी वही है । जहाँ तक इसमें गुणस्थान सिद्धान्त के विवेचन का प्रश्न है, प्राकृत पंचसंग्रह के गुणस्थान सम्बन्धी सभी विवरण इसमें भी मिलते हैं, अतः पिष्ट-पेषण और विस्तार भय से पुनः हम उन सब की चर्चा में उतरना नहीं चाहते हैं।
दूसरा संस्कृत पंचसंग्रह श्रीपालसुतढड्डा की रचना है ।३४६ ये प्राग्वाट् जाति के थे और उनका निवास स्थान चित्रकूट अर्थात् चित्तौड़ था। यहाँ ग्रन्थकार ने अपना परिचय तो दिया है, किन्तु ग्रन्थ के रचनाकाल का कोई निर्देश नहीं किया है, किन्तु इस पर सुमतिकीर्ति की जो टीका उपलब्ध है, उसका रचना काल विक्रम संवत् १६२० दिया है । अतः यह विक्रमीय सत्रहवीं शती के पूर्व और विक्रमीय बारहवीं शताब्दी के पश्चात् कभी रचित हुआ होगा । हमारी दृष्टि में इसका रचना काल चौदहवीं-पन्द्रहवीं शताब्दी के आसपास होना चाहिए । ढड्डाकृत पंचसंग्रह की विषयवस्तु एवं प्रकरण भी वही है, जो प्राकृत पंचसंग्रह के हैं । इसकी विषयवस्तु जहाँ एक ओर प्राकृत पंचसंग्रह से मिलती है, वहीं दूसरी ओर उसकी गोम्मटसार से भी समरूपता है । यही कारण है कि इसके टीकाकार ने अपनी टीका की पुष्पिकाओं में 'श्री पंचसंग्रह गोम्मटसार सिद्धान्त टीकायाम्' ऐसा उल्लेख किया है । यह ग्रन्थ भारतीय ज्ञानपीठ से प्राकृत पंचसंग्रह के अन्त में छपा है । इसकी विषयवस्तु आदि के सम्बन्ध में पंडित हीरालालजी ने अपनी प्रस्तावना में चर्चा की है । यह कृति भी प्राकृत पंचसंग्रह और अमितगति के संस्कृत पंचसंग्रह पर आधारित है । मात्र अन्तर यह है कि जहाँ अमितगति के संस्कृत पंचसंग्रह का श्लोक परिमाण २५०० है, वहीं ढड्डाकृत पंचसंग्रह का श्लोक परिमाण २००० है। इसमें भी गुणस्थान सम्बन्धी जो विवरण रहा हुआ है, वह प्राकृत पंचसंग्रह के अनुरूप ही है । विस्तार एवं पुनरावृत्ति के भय से इस सम्बन्ध में विस्तृत चर्चा करना आवश्यक नहीं है।
३४५ श्री अमितगति सूरि, विरचित : पंचसंग्रह - माणिकचन्द्र दिगम्बर जैन ग्रन्थमाला, बम्बई १६२७ ३४६ पंचसंग्रह - सम्पादक : पं. हीरालालजी जैन - भारतीय ज्ञानपीठ, काशी १६६० पृ ६६३-७४२
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