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________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा...... पंचम अध्याय........{365} प्रमत्तसंयत गुणस्थान में उत्तर बन्धहेतुओं के विकल्पों की चर्चा करते हुए तृतीय कर्मग्रन्थ में देवेन्द्रसूरि लिखते हैं कि प्रमत्तसंयत गुणस्थान में सर्वविरति होने से पूर्व गुणस्थान में अवशिष्ट पांच इन्द्रिय, मन, पांच काय का वध-ये ग्यारह अविरति भी नहीं होती है । चौदह पूर्वधर आहारक शरीर की रचना करते हैं, इसी कारण से आहारक काययोग और आहारक मिश्र काययोग होते हैं । अतः संज्वलन चतुष्क, नोकषाय ६, योग १३-ऐसे कुल २६ बन्धहेतु होते हैं । स्त्रीवेदवाले जीवों को चौदह पूर्व के अध्ययन का निषेध होने से आहारक शरीर की रचना सम्भव नहीं होती है, इसीलिए स्त्रीवेदवाले जीवों में आहारकद्विक नहीं होने से एक जीव की अपेक्षा कम से कम पांच और अधिक से अधिक सात बन्धहेतु सम्भव होते है। इनके कुल बन्ध विकल्प इस प्रकार हैं - तेरह योग के साथ तीन वेद को गुणित करने से १३ x ३ = ३६, उसमें से दो कम करने से ३७, उसको दो युगल से गुणित करने से ७४ और चार कषाय से गुणित करने पर २६६, ये पांच बन्धहेतु के विकल्प हुए। उसमें भय मिलाने से छः बन्धहेतु के भी २६६ विकल्प या भंग, जुगुप्सा मिलाने से भी छः बन्ध हेतु के भी २६६ भंग या विकल्प तथा भय और जुगुप्सा दोनों मिलाने से सात बन्धहेतु के २६६ भंग या विकल्प होते है । इस प्रकार कुल ११८४ भंग या विकल्प छठे प्रमत्तसंयत गुणस्थान में होते है। सातवें अप्रमत्तसंयत गुणस्थान में संज्वलन चतुष्क, ६ नोकषाय होते है । परन्तु योग ११ ही होते है, क्योंकि सातवें गुणस्थान में आहारक और वैक्रिय शरीर की रचना का प्रारम्भ नहीं होता है । छठे गुणस्थान में इन दोनों शरीर की रचना प्रारम्भ की हो, तो सातवें गुणस्थान में आ सकते हैं । इस कारण से आहारकमिश्र और वैक्रियमिश्र, ये दोनों योग सम्भव नहीं होते हैं। स्त्रीवेदवाले को तो आहारककाययोग भी नहीं होता है, अतः पुरुषवेद की अपेक्षा स्त्रीवेद में एक बन्धहेतु कम होता है । ११ योग के साथ तीन वेद को गुणित करने से ११ x ३ = ३३, उसमें से एक कम करने से ३२, उसे दो युगल से गुणित करने पर ६४, उसे चार कषाय से गुणित करने पर २५६ भंग या विकल्प होते हैं । ये पांच बन्धहेतुओं के विकल्प (मंग) हुए । उसमें भय मिलाने से भी छः बन्धहेतुओं के भी २५६ विकल्प या भंग होते है । उसमें जुगुप्सा मिलाने से भी छः बन्ध हेतुओं के २५६ विकल्प या भंग और भय तथा जुगुप्सा दोनों मिलाने से भी सात बन्ध हेतुओं के २५६ विकल्प या भंग होते हैं । इसप्रकार कुल १०२४ बन्ध विकल्प सातवें गुणस्थान में होते हैं। ___आठवें अपूर्वकरण गुणस्थान में आहारककाययोग और वैक्रियकाययोग भी नहीं होते हैं, क्योंकि श्रेणी का आरंभ होने से शरीर की रचना नहीं होती है, इसीलिए मन के चार, वचन के चार और औदारिककाययोग-ऐसे नौ योग होते हैं । इनमें संज्वलन कषाय चतुष्क और नौ नोकषाय मिलाने से २२ बन्धहेतु होते हैं । इन २२ बन्धहेतुओं में एक जीव को एक समय में कम से कम पांच और अधिकतम सात बन्धहेतु होते है । इनमें पांच बन्धहेतु के कुल २१६ विकल्प या भंग होते हैं । भय मिलाने से छ: बन्धहेतु के भी २१६ भंग होते हैं । जुगुप्सा मिलाने से छः बन्धहेतु के भी २१६ भंग या विकल्प होते हैं । भय और जुगुप्सा दोनों मिलाने से सात बन्धहेतु के २१६ भंग या विकल्प होते हैं । इसप्रकार आठवें गुणस्थान में कुल ८६४ भंग या विकल्प होते हैं । ____ नवें अनिवृत्तिकरण गुणस्थान में हास्यषट्क बिना १६ बन्धहेतु होते हैं । संज्वलन कषाय चतुष्क, तीन वेद और नौ योग-ऐसे कुल १६ बन्धहेतु होते हैं, परन्तु तीनों वेद का उदय तो नवें गुणस्थान के प्रथम भाग तक ही रहता है । नवें गुणस्थान के दूसरे भाग में उनका उदयविच्छेद हो जाता है । वेदोदय के समय में तीन बन्धहेतुओं के ३ वेद x ४ कषाय x ६ योग = १०८ विकल्प या भंग होते है । वेदरहित अवस्था में दो बन्धहेतुओं के ४ कषाय ग ६ योग = ३६ विकल्प या भंग होते है । इसप्रकार न गुणस्थान में दोनों को मिलाकर १४४ विकल्प या भंग होते है। सूक्ष्मसंपराय गुणस्थान में संज्वलन लोभ और नौ योग-ऐसे दस बन्धहेतु होते है । इन दस बन्ध हेतुओं के १ x ६ = ६ विकल्प या भंग होते है। ग्यारहवें उपशान्तमोह गुणस्थान में नौ योग होते है, अतः बन्ध हेतुओं के नौ विकल्प या भंग होते हैं । तेरहवें सयोगीकेवली गुणस्थान में सात योग होते हैं, इसीलिए वहाँ बन्धहेतुओं के सात ही विकल्प होते हैं। चौदहवें अयोगीकेवली गुणस्थान में बन्ध का अभाव होने से वहाँ कोई भी बन्धहेतु या उसके विकल्प या भंग नहीं होते हैं । इस प्रकार चौदह गुणस्थानों के सभी भंग या विकल्पों का योग ४७, १३, ०१० होता है । Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only For Private & Personal Use Only w www.jainelibrary.org
SR No.001733
Book TitlePrakrit evam Sanskrit Sahitya me Gunsthan ki Avadharana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarshankalashreeji
PublisherRajrajendra Prakashan Trust Mohankheda MP
Publication Year2007
Total Pages566
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, Soul, & Spiritual
File Size20 MB
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