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प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा......
चतुर्थ अध्याय........{210) जीव शुक्ल लेश्यावाले लोक के असंख्यातवें भाग क्षेत्र का और लोकनाड़ी के चौदह भागों में से कुछ कम छ:२७१ भाग क्षेत्र का स्पर्श करते हैं। प्रमत्तसंयत आदि से सयोगीकेवली गुणस्थान तक के शुक्ललेश्यावाले जीवों का और लेश्यारहित जीवों का स्पर्शक्षेत्र सामान्यतया स्पर्श-अनुयोगद्वार के अनुसार जानना चाहिए।
भव्यमार्गणा में मिथ्यादृष्टि गुणस्थान से लेकर अयोगी केवली गुणस्थान तक के भव्य जीवों का स्पर्शक्षेत्र स्पर्श-अनुयोगद्वार के अनुसार जानना चाहिए। अभव्य का स्पर्शक्षेत्र सम्पूर्ण लोक है।
सम्यक्त्वमार्गणा में असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान से लेकर अयोगी केवली गुणस्थान तक के क्षायिक सम्यग्दृष्टि जीवों का स्पर्शक्षेत्र स्पर्श-अनुयोगद्वार में जो सामान्य रूप से कथन किया गया है, वही है, किन्तु संयतासंयतों का स्पर्शक्षेत्र लोक का असंख्यातवाँ भाग है । क्षायोपशामिक सम्यग्दृष्टि का स्पर्शक्षेत्र स्पर्श-अनुयोगद्वार में जो सामान्य रूप से कहा गया है, उसके अनुसार है, शेष औपशमिक सम्यग्दृष्टियों का स्पर्शक्षेत्र लोक का असंख्यातवाँ भाग है । सासादनसम्यग्दृष्टि, सम्यग्मिथ्यादृष्टि और मिथ्यादृष्टि का स्पर्शक्षेत्र स्पर्श-अनुयोगद्वार में जो सामान्य रूप से बताया गया है, उसके अनुरूप ही है।
संज्ञीमार्गणा में संज्ञी जीवों का स्पर्शक्षेत्र चक्षुदर्शनवाले जीवों के समान होता है । असंज्ञी जीवों का स्पर्शक्षेत्र सम्पूर्ण लोक है । संज्ञा से रहित जीवों का स्पर्शक्षेत्र स्पर्श-अनुयोगद्वार में सामान्य रूप से जो कथन किया गया है, उसी अनुसार मानना चाहिए।
आहारमार्गणा में मिथ्यादृष्टि गुणस्थान से लेकर क्षीणकषाय गुणस्थान तक के आहारक जीवों का स्पर्शक्षेत्र स्पर्श अनुयोगद्वार में सामान्य रूप से बताया गया है, वही समझना चाहिए। सयोगी केवली गुणस्थानवी जीव का स्पर्शक्षेत्र लोक का असंख्यातवाँ भाग है। अनाहारकों में मिथ्यादृष्टि जीव सम्पूर्ण लोक का स्पर्श करते हैं । सासादनसम्यग्दृष्टि लोक के असंख्यातवें भाग क्षेत्र का
और लोकनाड़ी के चौदह भागों में से कुछ कम ग्यारह भाग२७२ क्षेत्र का स्पर्श करते हैं । असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवी जीवों का स्पर्शक्षेत्र लोक का असंख्यातवाँ भाग और लोकनाड़ी के चौदह भागों में कुछ कम छः भाग२७३ है । सयोगी केवली गुणस्थानवर्ती जीव लोक के असंख्यातवें भाग का और केवली समुद्घात की अपेक्षा से लोक के बहुभाग का और सम्पूर्ण लोक का स्पर्श करते हैं । अयोगी केवली गुणस्थानवर्ती जीव लोक के असंख्यातवें भाग क्षेत्र का स्पर्श करते हैं। पंचम काल अनुयोगद्वार :
तत्त्वार्थसूत्र की सर्वार्थसिद्धि टीका में पूज्यपाद देवनन्दी ने आठ अनुयोगद्वारों और चौदह मार्गणाओं के सन्दर्भ में चौदह गुणस्थानों का विवरण प्रस्तुत किया है । काल नामक पंचम द्वार में सर्व जीवों की अपेक्षा और एक जीव की अपेक्षा से गुणस्थानों
गया है । यह काल की प्ररूपणा भी दो प्रकार से की गई है, एक सामान्य की अपेक्षा से और दूसरी विशेष की अपेक्षा से।
सामान्य की अपेक्षा मिथ्यादृष्टि जीव सभी कालों में पाए जाते हैं । एक जीव की अपेक्षा से तीन विकल्प हैं -अनादि-अनन्त, अनादि-सान्त और सादि सान्त । इनमें से सादि-सान्त मिथ्यादृष्टि जीवों का जघन्यकाल अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्टकाल कुछ कम अर्ध पुद्गल परावर्तन है । अभव्य मिथ्यादृष्टि जीव का काल अनादि-अनन्त है । भव्य मिथ्यादृष्टि, जो भविष्य में सम्यक्त्व प्राप्त
२७१ विहार वेदना, कषाय, वैक्रियक और मारणान्तिक समुद्घात की अपेक्षा यह स्पर्शक्षेत्र होता है। सो भी मिथ्यादृष्टि आदि चार गुणस्थानों की अपेक्षा
कथन किया गया है। संयतासंयत शुक्ल लेश्यावालों को तो विहार वेदना, कषाय, वैक्रियक समुद्घात की अपेक्षा लोक का असंख्यातवाँ भाग परिमाण ही स्पर्शक्षेत्र होता है । उपपाद की अपेक्षा मिथ्यादृष्टि और सासादनसम्यग्दृष्टि शुक्ललेश्यावालों का स्पर्श लोक के असंख्यातवाँ भाग परिमाण है । अविरतसम्यग्दृष्टि शुक्ल लेश्यावालों का स्पर्श कुछ कम छः रज्जु है। संयतासंयतों के उपपाद नही होता। फिर भी उनके मारणान्तिक
समुद्घात की अपेक्षा कुछ कम छः रज्जु बन जाता है। २७२ मेरुतल से नीचे कुछ कम पांच रज्जु और ऊपर छः रज्जु । यह स्पर्श उपपाद पद की अपेक्षा प्राप्त होता है । २७३ अच्युतकल्प तक ऊपर कुछ कम रज्जु । तिर्यंच असंयतसम्यग्दृष्टि जीव मरकर अच्युत कल्प तक उत्पन्न होते है। इसीलिए उपपाद पद की अपेक्षा
यह स्पर्श बन जाता है।
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