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________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा...... चतुर्थ अध्याय.......{209} सासादनसम्यग्दृष्टियों का स्पर्शक्षेत्र सामान्यतया लोक का असंख्यातवाँ भाग और विहार आदि की अपेक्षा त्रसनाड़ी के चौदह आठ भाग और मारणान्तिक समदघातकी अपेक्षा कुछ कम बारह भाग स्पर्शक्षेत्र होता है। आभिनिबोधिकज्ञानी, श्रुतज्ञानी, अवधिज्ञानी, मनःपर्यवज्ञानी और केवलज्ञानी जीवों का स्पर्शक्षेत्र स्पर्श-अनयोगद्वार में जो सामान्य रूप से कहा गया है, उतना ही होता है। संयममार्गणा में सभी संयतों का, संयतासंयतों का और असंयतों का स्पर्शक्षेत्र स्पर्श-अनुयोगद्वार के सामान्य कथन के समरूप है। दर्शनमार्गणा में मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवी जीवों, क्षीणकषाय तक के चक्षुदर्शनवाले जीवों का स्पर्शक्षेत्र पंचेन्द्रियों के समान है। मिथ्यादृष्टि गुणस्थान से लेकर क्षीणकषाय गुणस्थान तक के अचक्षुदर्शनवाले जीवों का तथा अवधिदर्शन और केवलदर्शनवाले जीवों का स्पर्शक्षेत्र स्पर्श-अनुयोगद्वार में सामान्य से जो कहा गया है, उसके अनुसार ही होता है । लेश्यामार्गणा में कृष्ण, नील और कापोत लेश्यावाले मिथ्यादृष्टि जीव का स्पर्शक्षेत्र सम्पूर्ण लोक है। सासादन गुणस्थानवर्ती जीव लोक के असंख्यातवें भाग क्षेत्र का और लोकनाड़ी के चौदह भागों में से क्रमशः कुछ कम पाँच६४ भाग, कुछ कम चार भाग और कुछ कम दो भाग क्षेत्र का स्पर्श करते हैं । सम्यग्मिथ्यादृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवी जीव लोक के असंख्यातवें भाग क्षेत्रका स्पर्श करते हैं। पीतलेश्यावाले मिथ्यादृष्टि और सासादनसम्यग्दृष्टि जीव सामान्यतः लोक के असंख्यातवें भाग क्षेत्र का और गमनागमन आदि की अपेक्षा लोकनाड़ी के चौदह भागों में से कुछ कम आठ भाग६५ का और मारणान्तिक • समुद्घात की अपेक्षा कुछ कम नौ भाग६६ क्षेत्र का स्पर्श करते हैं। सम्यग्मिथ्यादृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवी जीव सामान्यतः लोक के असंख्यातवें भाग क्षेत्र का, गमनागमन आदि की अपेक्षा लोकनाड़ी के चौदह भागों में कुछ कम आठ२६७ भाग क्षेत्र का स्पर्श करते हैं । संयतासंयत जीव लोक के असंख्यातवें भाग क्षेत्र का और लोकनाड़ी के चौदह भागों में कुछ कम डेढ़ भाग६८ क्षेत्र का स्पर्श करते हैं। प्रमत्तसंयत और अप्रमत्तसंयत गुणस्थानवी जीव लोक के असंख्यातवें भाग क्षेत्र का स्पर्श करते हैं । मिथ्यादृष्टि गुणस्थान से लेकर असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान तक के पद्मलेश्यावाले जीव लोक के असंख्यातवें भाग क्षेत्र का और लोकनाड़ी के चौदह भागों में से कुछ कम आठ भाग६६ क्षेत्रका स्पर्श करते हैं। संयतासंयत लोक के असंख्यातवें भाग क्षेत्र का और लोकनाड़ी के चौदह भागों में से कुछ कम पाँच भाग२७० क्षेत्र का स्पर्श करते हैं । प्रमत्तसंयत और अप्रमत्तसंयत गुणस्थानवी जीव लोक के असंख्यातवें भाग क्षेत्र का स्पर्श करते हैं । मिथ्यादृष्टि से लेकर संयतासंयत तक के गुणस्थानवर्ती २६४ यह स्पर्श मारणान्तिक और उपपाद की अपेक्षा बतलाया है। कृष्ण लेश्यावाले के कुछ कम पाँच रज्जु, नील लेश्यावाले के कुछ कम चार रज्जु और कापोत लेश्यावाले के कुछ कम दो रज्जु क्षेत्र का स्पर्श करते हैं । जो नारकी सासादनसम्यग्दृष्टि तिर्यंच में उत्पन्न होते है, उन्हीं की अपेक्षा यह स्पर्श सम्भव है। २६५ यह स्पर्श क्षेत्र विहार, वेदना, कषाय और वैक्रियक समुद्घात की अपेक्षा कहा जाता है, क्योंकि पीतलेश्यावाले सासादनसम्यग्दृष्टि जीव का नीचे कुछ कम दो रज्जु और ऊपर छः रज्जु क्षेत्र में गमनागमन हो सकता है। २६६ यह स्पर्श क्षेत्र मारणान्तिक समुद्घात की अपेक्षा कहा गया है, क्योंकि ऐसे जीव तीसरी पृथ्वी से ऊपर कुछ कम नौ रज्जु क्षेत्र में मारणान्तिक समुद्घात करते हुए पाए जाते हैं । उपपाद पद की अपेक्षा इनका स्पर्शक्षेत्र कुछ कम डेढ़ रज्जु होता है, इतना यहाँ विशेष जानना चाहिए। २६७ यह स्पर्शक्षेत्र विहार, वेदना, कषाय, वैक्रियक और मारणान्तिक समुद्घात की अपेक्षा प्राप्त होता है। इतनी विशेषता है कि मिश्र गुणस्थान में मारणान्तिक समुद्घात नहीं होता है। २६८ यह स्पर्शक्षेत्र मारणान्तिक समुद्घात की अपेक्षा कहा गया है। इनके उपपाद पद नहीं होता है। २६६ यह स्पर्शक्षेत्र विहार, वेदना, कषाय, वैक्रियक और मारणान्तिक समुद्घात की अपेक्षा प्राप्त होता है । इनका स्पर्शक्षेत्र उपपाद पद की अपेक्षा कुछ कम पाँच रज्जु होता है । इतनी विशेषता है कि मिश्र गुणस्थान में मारणान्तिक समुद्घात और उपपाद पद (पुनर्जन्म का स्थान) नहीं होता है । २७० यह स्पर्श मारणान्तिक समुद्घात की अपेक्षा होता है, क्योंकि पेलेश्यावाले संयतासंयत उपर कुछ कम पाँच रज्जु क्षेत्र मेंमारणान्तिक समुद्घात कर सकते हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001733
Book TitlePrakrit evam Sanskrit Sahitya me Gunsthan ki Avadharana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarshankalashreeji
PublisherRajrajendra Prakashan Trust Mohankheda MP
Publication Year2007
Total Pages566
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, Soul, & Spiritual
File Size20 MB
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