________________
प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा......
प्रथम अध्याय........{8) पर भी सूर्य की प्रभा सर्वथा आच्छादित नहीं होती है, किन्तु कुछ अंश खुली रहती है, जिससे समय का अर्थात् दिन-रात का पता चलता है, उसी प्रकार मिथ्यात्व मोहनीय का उदय होने पर जीव का दृष्टिगुण सर्वथा आवरित नहीं हो जाता है, कुछ अंश खुला रहता है। यदि ऐसा न माने तो निगोदिया जीव, अजीव कहलाएगा।" इसी कारण से मिथ्यात्व को गुणस्थान कहा गया है। पुनः सम्यग्दर्शन की प्राप्ति के पूर्व अनन्तानुबन्धी कषाय चतुष्क तथा दर्शनमोह का क्षयोपशम और यथाप्रवृत्तिकरण, अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण भी इसी अवस्था में होते हैं, अतः इस अपेक्षा से इसे गुणस्थान कहा जाता है। ___ काल की अपेक्षा से मिथ्यात्व के तीन भेद हैं - (१) अनादि-अनन्त (२) अनादि-सान्त और (३) सादि-सान्त ।२ प्रथम भेद के अधिकारी अभव्य जीव अथवा जातिभव्य (जो जीव भव्य होकर भी कभी मुक्त नहीं होता) जीव हैं। दूसरा भेद उन जीवों की अपेक्षा है, जो जीव अनादिकालीन मिथ्यादर्शन रूप ग्रंथि का भेदन करके सम्यग्दृष्टि बन जाते हैं। ये जीव भव्य कहलाते हैं। तीसरा भेद उन जीवों की अपेक्षा से है, जो एक बार सम्यक्त्व प्राप्त करने के बाद पुनः मिथ्यात्वी हो जाते हैं। इन जीवों की अपेक्षा से प्रथम मिथ्यात्व गुणस्थान की आदि तब होती है, जब वे सम्यक्त्व से पतित होकर प्रथम मिथ्यात्व गुणस्थान में आते हैं अथवा उपरिम गुणस्थानों से पतित होकर गिरते हुए मिथ्यात्व गुणस्थान को प्राप्त होते है। ऐसे जीवों की अपेक्षा से सादि-सान्त विकल्प है, क्योंकि जिसको एक बार सम्यक्त्व की प्राप्ति हो गई है, वह निश्चित मोक्षगामी होता है। जिस जीव के मिथ्यात्व की आदि है, उसके मिथ्यात्व का अन्त अवश्यम्भावी है। तीसरे भेद की अपेक्षा से मिथ्यात्व गुणस्थान की जघन्य और उत्कृष्ट स्थिति क्रमशः अन्तर्मुहूर्त और देशोन अर्धपुद्गल परावर्त है।
स्थानांगसूत्र में मिथ्यात्व के दस भेद भी बतलाए गए हैं-(9) अधर्म में धर्मबुद्धि (२) धर्म में अधर्मबुद्धि (३) उन्मार्ग में मार्गबुद्धि (४) मार्ग में उन्मार्गबुद्धि (५) अजीव में जीव बुद्धि (६) जीव में अजीवबुद्धि (७) असाधु में साधु की बुद्धि (८) साधु में असाधु की बुद्धि (E) अमूर्त में मूर्त की बुद्धि और (१०) मूर्त में अमूर्त की बुद्धि ।
आगमों में वर्णित इन दस भेदों के अतिरिक्त मिथ्यात्व के आभिग्राहिकादि पांच तथा लौकिकादि दस-ऐसे पन्द्रह भेद आदि भी मिलते है, कुल पच्चीस भेद होते हैं, किन्तु ये स्वतन्त्र भेद न होकर आगम में वर्णित दस प्रकार के मिथ्यात्व का वर्णन करने वाले हैं। इन पच्चीस भेदों को संक्षेप में कहें तो नैसर्गिक (स्वभावजन्य) और अधिगमज (परोपदशजन्य) मिथ्यात्व- ये दो भेद होंगे।
मिथ्यात्व मोहनीय के उदय से तत्वार्थ के विपरीत श्रद्धानुरूप मिथ्यात्व के पांच भेद हैं- एकान्त, विपरीत, विनय, संशयित और अज्ञान।३ अनेक धर्मात्मक पदार्थ को एक धर्मात्मक मानना एकान्त मिथ्यात्व है, जैसे वस्तु सर्वथा क्षणिक है अथवा सर्वथा नित्य है। धर्मादिक के स्वरूप को विपर्ययरूप मानना विपरीत मिथ्यात्व है, जैसे हिंसादि से स्वर्गादि की प्राप्ति होती है। सम्यग्दृष्टि देव, गुरु और उनके कहे हुए शास्त्रों में और मिथ्यादृष्टि देव, गुरु और उनके शास्त्रों में समान बुद्धि रखना, उन्हें समान रूप में सम्मान देना, दोनों में श्रद्धा रखना, विनय मिथ्यात्व है। समीचीन और असमीचीन-दोनों प्रकार के पदार्थों में से किसी भी एक का निश्चय नहीं होना संशय मिथ्यात्व है। इसी प्रकार जीवादि पदार्थों का स्वरूप यही है, इस तरह विशेषरूप से न समझने को अज्ञान मिथ्यात्व कहते हैं। जब तक जीव इन मिथ्या मान्यताओं से ग्रसित रहता है, उसे मिथ्यात्व गुणस्थान में स्थित माना जाता है।
योगशास्त्र के प्रथम प्रकाश में जीव की प्रथम अविकसित अवस्था को गुणस्थान क्रम में लिया गया है। इसको स्पष्ट करते हुए कहा है कि मिथ्यादृष्टि को जो गुणस्थान कहा गया है, वह भद्रता आदि गुणों के आधार पर कहा है। गुण के लिए उत्थान यहीं से होता है।३४
३१ सव्व जीवाणं वि य, अक्खरस्स अणंतमो भागो निच्च उग्धाडिओ चिट्ठइ।
जइ पुण सो वि आवरिज्जा, तेण जीवो अजीवत्तणं पाउणिज्जा।। - नंदीसूत्र-७५ ३२ स्थानांग-१०/७३४. ३३ गोम्मटसार, जीवकाण्ड -१५. ३४ योगशास्त्र, प्रथम प्रकाश- श्री हेमचन्द्राचार्य प्रणीतम्, प्रकाशन श्री निर्ग्रन्थ साहित्य प्रकाशन संघ, दिल्ली ६, सन् १९७५.
Jain Education Intemational
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org