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________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा.. प्रथम अध्याय.......{9} __ योगदृष्टि समुच्चय में मित्रा, तारा आदि योग दृष्टियों का विवेचन आया है। उनमें प्रथम मित्रदृष्टि जिसमें चित्त की मृदुता, अद्वेषवृत्ति, अनुकम्पा और कल्याण साधन की स्पृहा जैसे प्राथमिक सद्गुणों का प्रकटीकरण होता है। अतः प्रथम गुणस्थान मिथ्यात्व रूप होते हुए भी सम्यग्दर्शन की ओर ले जाने वाले गुणों की भूमि का होने से, इसे गुणस्थान अर्थात् गुणों की भूमि कहा गया है। यहाँ सम्यग्दर्शन के आविर्भाव की तैयारी हो सकती है, किन्तु यथार्थ सम्यग्दर्शन प्रकट नहीं होता। मन्द रूप मिथ्यात्व के अस्तित्व से प्रथम गुणस्थान को मिथ्यात्व गुणस्थान कहा गया है।३५ (२) सास्वादन गुणस्थान- प्राकृत भाषा में सासायण कहते हैं तथा संस्कृत में यह सास्वादन और सासादन दो रूपों में मिलता है। यद्यपि सास्वादन गुणस्थान क्रम की अपेक्षा से विकासशील कहा जा सकता है, लेकिन वस्तुतः यह गुणस्थान आत्मा की पतनोन्मुख अवस्था का द्योतक है। कोई भी आत्मा इस गुणस्थान में प्रथम गुणस्थान से विकास करके नहीं आती वरन् जब उत्क्रान्ति करने वाली आत्मा ऊपर के गुणस्थानों से पतित होकर प्रथम गुणस्थान की ओर जाती है, तब इस गुणस्थान से गुजरती है। जो जीव औपशमिक सम्यक्त्व से च्युत हो गया है, परन्तु जिसने अभी मिथ्यात्व को प्राप्त नहीं किया है, ऐसे मिथ्यात्व की ओर अभिमुख जीव को सम्यक्त्व का जो आंशिक आस्वादन शेष रहता है, सम्यक्त्व के इस आस्वादन के कारण ही प्रस्तुत गुणस्थान को सास्वादन सम्यग्दृष्टि कहते हैं ।३६ इस गुणस्थानवी जीव की स्थिति जघन्य से एक समय और उत्कृष्ट से छः आवलिका मात्र होती है। जबकि एक मुहूर्त (४८ मिनिट) में १, ६७, ७७, २१६ आवलिकाएँ होती है। ज्ञानियों ने उसे विशेष स्पष्ट करते हुए समझाया है कि मोहरूपी वायु के चलने से परिणामरूपी डाली पर रहा हुआ सम्यक्त्वरूपी फल टूटकर तत्काल मिथ्यात्वरूपी धरती पर नहीं पहुँचता है, अपितु कुछ काल बीच में रहता है। इसी प्रकार सम्यक्त्व के परिणामों से छूटने से और मिथ्यात्व के परिणामों को प्राप्त नहीं होने तक, बीच के परिणामों को सास्वादन सम्यग्दृष्टि गुणस्थान कहते हैं। इसका काल जघन्यतः एक समय और उत्कृष्टतः छः आवलिका जितना है। इस गुणस्थानवर्ती जीव निश्चय से मिथ्यात्व को प्राप्त करने वाला होता है, किन्तु जैसे खीर के भोजन के बाद वमन करनेवाले को खीर का आंशिक स्वाद आता रहता है, वैसे ही सम्यक्त्व के परिणामों को त्याग करने के । पश्चात् मिथ्यात्व की ओर अभिमुख जीव को कुछ समय पर्यन्त सम्यक्त्व का आस्वाद अनुभव में रहता है, इसीलिए इसे सास्वादन गुणस्थान के नाम से अभिहित किया जाता है।३८ जिस प्रकार पर्वत से गिरने और भूमि पर पहुँचने से पहले मध्य का जो काल है, वह न तो पर्वत पर ठहरने का काल है और न ही भूमि पर ठहरने का, वह तो मध्य स्थिति के अनुभव का काल है, इसीप्रकार अनन्तानुबन्धी कषाय चतुष्क में से किसी एक का उदय होने पर सम्यक्त्व को छोड़कर और मिथ्यात्व का उदय न होने पर मध्य के अनुभव काल में जो परिणाम होते हैं, उन्हें सास्वादन गुणस्थान कहते हैं।३६ (३) मिश्र गुणस्थान- दर्शन मोहनीय के तीन पुंजों सम्यक्त्व (शुद्ध), मिथ्यात्व (अशुद्ध) और सम्यक्-मिथ्यात्व (अर्द्धशुद्ध) में से जब अर्द्धशुद्ध पुंज का उदय होता है, तब मिश्र गुणस्थान होता है। जिस प्रकार शक्कर से मिश्रित दही का स्वाद कुछ खट्टा और कुछ मीठा अर्थात् मिश्र होता है, इसीप्रकार जीव की दृष्टि कुछ सम्यक् और कुछ मिथ्या अर्थात् मिश्र हो जाती है। यह अवस्था ३५ योगदृष्टि समुच्चय - श्री हरिभद्रसूरि जैन ग्रन्थ प्रकाशक संस्था, अहमदाबाद, सन् १६४०. ३६ (क) सहेव तत्वश्रद्धानं रसास्वादनेन वर्तते इति सास्वादनः। -समवायांग वृत्तिपत्र -२६. (ख) गुणस्थान क्रमारोह -१२. काल के सब से सूक्ष्म अंश को समय कहते है और असंख्यात समय की एक आवलि होती है। यह एक आवलि प्रमाण काल भी एक मिनिट से बहुत छोटा होता है। ३८ "सासादनं तत्र आयमौपशमिक सम्यक्त्व लक्षणं सादयति अपनयति आसादनम् अनन्तानुबन्धी कषायवेदनम्.. ततः सहासादनेन वर्तते इति सासादनम्। तथाऽत्रापि गुणस्थाने मिथ्यात्वभिमुखतया सम्यक्त्वस्योपरि व्यलीकचित्तस्य पुरुषस्य सम्यक्त्वमुद्वमतस्तद्रसास्वादो भवतीति इदं सास्वादनमुच्यते।" - षडशीतिप्रकाश (आचार्य देवेन्द्रसूरि विरचित वृत्ति सहित) प्रणेता -मुनि नन्दनविजय, प्रकाशन- जैन ग्रन्थ प्रकाशक सभा, राजनगर (अहमदाबाद) पत्रांक ४३-४४. ३६ सम्मत्तरयण पन्वयसिहरादो मिच्छभूमि समभिमुहो। जासिय सम्मत्तो सो सासणजामो मुणेयम्वो।। - गोम्मटसार, जीवकाण्ड -२०. Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001733
Book TitlePrakrit evam Sanskrit Sahitya me Gunsthan ki Avadharana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarshankalashreeji
PublisherRajrajendra Prakashan Trust Mohankheda MP
Publication Year2007
Total Pages566
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, Soul, & Spiritual
File Size20 MB
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