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प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा......
प्रथम अध्याय........{12} वास्तविक युद्ध नहीं होता है। अनेक बार तो ऐसा प्रसंग आता है कि वासनारूपी शत्रुओं के प्रति मिथ्यात्वमोह के जागृत हो जाने से अचेतन भय के वश अर्जुन के समान यह आत्मा पलायन या दैन्यवृत्ति को ग्रहणकर भाग जाती है, लेकिन जिन आत्माओं में वीर्योल्लास बढ़ जाता है, वे कृतसंकल्प होकर संघर्षरत हो जाती है और वासनारूपी शत्रुओं के राग और द्वेषरूपी सेनापतियों के व्यूह का भेदन कर देती है। भेदन की इस प्रक्रिया को अपूर्वकरण कहते हैं। राग और द्वेषरूपी शत्रुओं का भेदन करने से आत्मा . को जो आनन्द प्राप्त होता है, वह पूर्ण अनुभूतियों से विशिष्ट प्रकार का अथवा अपूर्व होता है। इस अपूर्वकरण में जीव का मानसिक तनाव और संशय समाप्त हो जाता है और सम्यक्त्व की प्राप्ति होती है। अतः आत्मा को अनुपम शान्ति का अनुभव होता है। अपूर्वकरण में आत्मा कर्मशत्रुओं पर विजय पाते हुए निम्नलिखित पांच प्रक्रियाएँ करती हैं(3) स्थितिघात - कर्मविपाक की अवधि में परिवर्तन करना। (२) रसघात - कर्मविपाक एवं बन्धन की तीव्रता में कमी करना। (३) गुणश्रेणी - कर्मों को ऐसे क्रम में रख देना ताकि विपाक काल के पूर्व ही उनका फलभोग किया जा सके। (४) गुणसंक्रमण - कर्मो का उनकी अवान्तर प्रकृतियों में रूपान्तर करना। जैसे दुःखद वेदना को सुखद वेदना में
रूपान्तरित कर देना। (५) अपूर्वबन्ध - क्रियमाण क्रियाओं के परिणामस्वरूप होने वाले बन्ध का अत्यन्त अल्पकालिक एवं अल्पतर मात्रा में
होना। यह अपूर्वकरण की प्रक्रिया अभव्य जीव कभी भी नहीं कर सकता है, भव्य जीव ही कर सकता है, किन्तु वह भी बार-बार नहीं कर सकता। ____ अनिवृत्तिकरण-आत्मा अपूर्वकरण की प्रक्रिया के द्वारा राग और द्वेष की ग्रन्थियों का भेदन कर विकास की दिशा में अपना अगला चरण रखती है, यह प्रक्रिया अनिवृत्तिकरण कहलाती हैं। यहाँ आत्मा मोह के आवरण को अनावृत्त कर अपने यथार्थ रूप में साधक के सामने अभिव्यक्त हो जाती है। अनिवृत्ति अर्थात् जिस करण के करने पर वापस निवृत्ति-अर्थात् लौटना न हो, ऐसा करण यानी आत्मा को शुद्ध प्रबल परिणाम । आत्मा को ऐसा विशुद्ध अध्यवसाय विशेष रूप करण, जिससे सम्यक्त्व प्राप्त किए बिना जीव निवृत्त नहीं होता है, उसे अनिवृत्तिकरण कहते है। इस करण के समय जीव का वीर्य-समुल्लास अर्थात् सामर्थ्य पूर्व की -
अपेक्षा बढ़ जाता है, जो कर्मक्षय के लिए वज्र के समान माना जा सकता है, क्योंकि ये तीनों करण विशिष्ट निर्जरा के साधनभूत विशुद्ध परिणाम हैं। इन तीनों करणों की स्थिति अन्तर्मुहूर्त परिमाण है। ___अनिवृत्तिकरण में पुनः स्थितिघात, रसघात, गुणश्रेणी, गुणसंक्रमण और अपूर्वबन्ध नामक प्रक्रिया सम्पन्न होती है, जिसे अन्तरकरण कहा जाता है। अन्तरकरण की इस प्रक्रिया में आत्मा दर्शन मोहनीय कर्म को प्रथमतः दो भागों में विभाजित करती है। साथ ही अनिवृत्तिकरण के अन्तिम चरण में दूसरे-दूसरे भागों को तीन भागों में विभाजित करती है, जिन्हें क्रमशः सम्यक्त्वमोह, मिथ्यात्वमोह और मिश्रमोह कहते हैं। सम्यक्त्वमोह सत्य के ऊपर श्वेत कांच का आवरण है, जबकि मिश्रमोह हल्के रंगीन काँच का और मिथ्यात्वमोह गहरे रंगीन काँच का आवरण है। पहले में सत्य के स्वरूप का दर्शन वास्तविक रूप में होता है, दूसरे में विकृत रूप में होता है, लेकिन तीसरे में सत्य पूरी तरह आवरित रहता है। सम्यग्दर्शन के काल में भी आत्मा गुणसंक्रमण क्रिया करती है और मिथ्यात्वमोह की कर्मप्रकृतियों को मिश्रमोह तथा सम्यक्त्वमोह में रूपान्तरित करती रहती है। एक अन्तर्मुहूर्त की समय सीमा समाप्त होने पर पुनः दर्शनमोह के पूर्व में विभाजित तीन वर्गों में से किसी भी वर्ग की कर्मप्रकृति का गुणश्रेणी के अनुसार उदय हो सकता है। यदि सम्यक्त्वमोह का उदय होता है, तो आत्मा विशुद्धाचरण करती हुई विकासोन्मुख हो जाती है, लेकिन यदि मिश्रमोह अथवा मिथ्यात्वमोह का विपाक होता है तो आत्मा पुनः पततोन्मुख हो जाती है और अपने अग्रिम विकास के लिए उसे पुनः ग्रन्थिभेद की प्रक्रिया करनी होती है। फिर भी इतना तो निश्चित है कि वह एक सीमित समयावधि में अपने आदर्श को उपलब्ध कर लेती है। अनिवृत्तिकरण का काल बीत जाने पर औपशमिक सम्यक्त्व होता है।
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