SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 529
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा....... नवम अध्याय........{473} तक आचार्य नानेश की कृति का प्रश्न है, इस कृति में गुणस्थानों के स्वरूप का व्यापक विश्लेषण हुआ है। साथ ही गुणस्थान सिद्धान्त और कर्मसिद्धान्त के पारस्परिक सम्बन्ध को भी उसमें अधिक गम्भीरता से स्पष्ट किया गया है । यह कृति गुणस्थान की अवधारणा को शास्त्रीय गहराई से तो प्रस्तुत करती है, किन्तु इसमें शोधपूर्ण और तुलनात्मक विवेचन का अभाव है । आचार्य जयन्तसेनसूरिजी की कृति में गुणस्थानों की अवधारणा के साथ-साथ गुणस्थानों का आध्यात्मिक विकास में क्या स्थान है, इस पर व्यापक दिशानिर्देश उपलब्ध होता है । इस कृति में गुणस्थानों के साथ मार्गणास्थानों और कर्मप्रकृतियों के सहसम्बन्ध को बहुत विस्तार से तो स्पष्ट नहीं किया गया है, किन्तु तुलनात्मक विवेचन की दृष्टि से यह कृति महत्वपूर्ण है । इसमें न केवल गुणस्थान की अवधारणा का तुलनात्मक विवरण प्रस्तुत किया गया है, अपितु इसके साथ इसमें आध्यात्मिक विकास की पूर्ण के रूप में मोक्ष की अवधारणा का भी विविध दर्शनों के साथ तुलनात्मक विवेचन उपलब्ध होता है । आचार्य देवेन्द्रमुनिजी ने यद्यपि गुणस्थान के सम्बन्ध में कोई स्वतन्त्र कृति की रचना नहीं की, किन्तु उन्होंने अपने कर्मविज्ञान नामक महाकाय ग्रन्थ के ५ वें खण्ड में लगभग पांच अध्यायों में गुणस्थान सम्बन्धी विवेचन को प्रस्तुत किया है । यह विवेचन चाहे गुणस्थान के सम्बन्ध में स्वतन्त्र ग्रन्थ के रूप में न हो, किन्तु एक स्वतन्त्र ग्रन्थ से कम भी नहीं है । इसमें गुणस्थान के विवरणात्मक और तुलनात्मक पक्षों का सांग संतुलन उपलब्ध होता है । आधुनिक युग में सन्दर्भ कोष ग्रन्थ के रूप में आचार्य श्रीराजेन्द्रसूरिजी ने 'अभिधानराजेन्द्रकोष' जैसे अति विशाल ग्रन्थ की रचना की है । अभिधानराजेन्द्रकोष आगमों एवं प्राचीन ग्रन्थों की अवधारणाओं की समीचीन अभिव्यक्ति और अर्थघटन में सर्वश्रेष्ठ सहायक ग्रन्थ है । विश्व की अनमोल धरोहर अभिधानराजेन्द्रकोष सात भागों में विभक्त है । इस विशालतम ग्रन्थ के तृतीय खण्ड में गुणस्थान और चतुर्थ खण्ड में जीवस्थान का टीका सहित सन्दर्भ विशद विवेचन है । इसी क्रम में 'जैनेन्द्रसिद्धान्तकोष' में जिनेन्द्रवर्णीजी ने अनेक दिगम्बर ग्रन्थों के सन्दर्भ युक्त गुणस्थानों का संक्षिप्त विवेचन किया है । प्रस्तुत कृति के अष्टम अध्याय में हमने जिस पक्ष पर अधिक बल दिया है, वह गुणस्थान सिद्धान्त की अन्य धार्मिक और दार्शनिक अवधारणाओं से तुलना सम्बन्धी है । इस सम्बन्ध में हमने मुख्य रूप से पंडित सुखलालजी, डॉ. सागरमल जैन, डॉ. प्रमिला जैन और आचार्य श्री जयन्तसेनसूरिश्वरजी की रचनाओं को आधार बनाकर यह विवेचना प्रस्तुत की है । प्रस्तुत विवेचना में हमने जैन, बौद्ध, हिन्दू एवं आधुनिक मनोविज्ञान सम्बन्धी पक्षों को समाविष्ट करने का प्रयत्न किया है । इसके साथ ही जैनयोग और पातंजलयोग की आध्यात्मिक विकास सम्बन्धी अवस्थाओं की भी तुलना की है । इस सम्बन्ध में हमने एक व्यापक दृष्टि से विचार करने का प्रयत्न किया है । इसीलिए जहाँ से जो भी तुलनात्मक विवेचन उपलब्ध हो सका उसे सन्दर्भ संग्रहित करने का प्रयत्न किया है, ताकि तुलनात्मक विवेचन में पूर्णता आ सके । इस प्रकार प्रस्तुत कृति में हमने प्राचीनकाल से लेकर आधुनिक युग तक जैन साहित्य में गुणस्थान सम्बन्धी विवेचनाएं कहाँ और किस रूप में उपलब्ध हैं, इसका एक सर्वेक्षण करने का प्रयत्न किया है । यह सर्वेक्षण गुणस्थान सम्बन्धी विवेचनाओं को कालक्रम में प्रस्तुत करने की दृष्टि से महत्वपूर्ण है। इस सम्पूर्ण विवेचन में हम किसी मौलिक शोध का दावा तो नहीं करते हैं, किन्तु विशाल जैन साहित्य के महोदधि में से गुणस्थान सिद्धान्त सम्बन्धी रत्नों की खोज का यह विनम्र शोधपूर्ण उपक्रम अवश्य है। यद्यपि जैन साहित्य अत्यन्त विशाल है और उसका तलस्पर्शी आलोडन और विलोडन तो व्यक्ति के सम्पूर्ण जीवन में भी सम्भव नहीं है, फिर भी इस अल्प अवधि में हमने ईमानदारी से जितना आलोडन- विलोडन सम्भव हो सकता था उतना करने का प्रयत्न किया है । हम अवश्य यह स्वीकार करते है कि इसमें अभी बहुत कुछ करणीय अवशेष रह गया होगा, किन्तु जैन धर्म-दर्शन के जो भी प्रमुख ग्रन्थ हमें उपलब्ध हो सके उन्हें निश्चित ही गुणस्थान सिद्धान्त की दृष्टि से समाहित करने का प्रयत्न प्रस्तुत कृति में किया गया है । सीमित अवधि में और मूल ग्रन्थों की उपलब्धि सम्बन्धी कठिनाई के बावजूद जितना प्रयत्न सम्भव हो सका उतना हमने किया है । हमारा यह विश्वास है कि भविष्य में इस दिशा में आगे शोधकार्य करने वाले शोधार्थियों के लिए यह ग्रन्थ आलम्बन रूप होगा । हम अपने प्रयास में कितने सफल या असफल हुए उसका मूल्यांकन तो विद्वज्जनों द्वारा किया जाना है । हमसे तो जो सम्भव हो सका, वह निष्काम भाव से और बिना किसी आग्रह के यहाँ प्रस्तुत करने का प्रयत्न किया है, ताकि जैनधर्म की दोनों परम्पराओं के साहित्य के साथ न्याय हो और किसी की उपेक्षा न हो । यही दृष्टि हमने इस शोधप्रबन्ध में रखी है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001733
Book TitlePrakrit evam Sanskrit Sahitya me Gunsthan ki Avadharana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarshankalashreeji
PublisherRajrajendra Prakashan Trust Mohankheda MP
Publication Year2007
Total Pages566
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, Soul, & Spiritual
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy