SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 252
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा...... चतुर्थ अध्याय........{206} दर्शनमार्गणा में मिथ्यादृष्टि से लेकर क्षीणकषाय तक प्रत्येक गुणस्थानवाले चक्षुदर्शनवाले जीवों का क्षेत्र लोक का असंख्यातवाँ भाग है । मिथ्यादृष्टि से लेकर क्षीणकषाय तक प्रत्येक गुणस्थानवाले अचक्षुदर्शनवाले जीवों का क्षेत्र सामान्यतया सम्पूर्ण लोक है। अवधिदर्शन वालों का क्षेत्र केवलज्ञानियों के समान अर्थात् लोक का असंख्यातवाँ भाग, लोक का बहुभाग परिमाण और सम्पूर्ण लोक है। लेश्यामार्गणा में मिथ्यादृष्टि से लेकर असंयतसम्यग्दृष्टि तक प्रत्येक गुणस्थानवाले कृष्ण, नील और कापोतलेश्यावाले जीवों का क्षेत्र सम्पूर्ण लोक है । मिथ्यादृष्टि से लेकर अप्रमत्तसंयत प्रत्येक गुणस्थानवाले पीत और पद्मलेश्यावाले जीवों का क्षेत्र लोक का असंख्यातवाँ भाग है । मिथ्यादृष्टि से लेकर क्षीणकषाय तक प्रत्येक गुणस्थानवाले शुक्ललेश्यावाले जीवों का क्षेत्र लोक का असंख्यातवाँ भाग है। शुक्ललेश्यावाले सयोगी केवली तथा लेश्यारहित अयोगी केवली जीवों का क्षेत्र लोक का असंख्यातवाँ भाग, लोक का बहुभाग परिमाण तथा सम्पूर्ण लोक है । भव्यमार्गणा में चौदह गुणस्थानवाले भव्य जीवों का क्षेत्र लोक का असंख्यातवाँ भाग है। अभव्य जीवों का क्षेत्र सम्पूर्ण लोक है। सम्यक्त्वमार्गणा में असंयतसम्यग्दृष्टि से लेकर अयोगीकेवली तक प्रत्येक गुणस्थानवाले क्षायिकसम्यग्दृष्टि जीवों का, असंयतसम्यग्दृष्टि से लेकर अप्रमत्तसंयत तक प्रत्येक गुणस्थानवाले क्षायोपशमिक सम्यग्दृष्टि जीवों का असंयतसम्यग्दृष्टि से लेकर उपशान्तकषाय गुणस्थान तक प्रत्येक गुणस्थानवाले औपशमिक सम्यग्दृष्टि जीवों का तथा सासादनसम्यग्दृष्टि, सम्यग्मिथ्यादृष्टि और मिथ्यादृष्टि जीवों का क्षेत्र लोक का असंख्यातवाँ भाग, लोक के असंख्यातवें भाग का बहुभाग और सम्पूर्ण लोक है । संज्ञीमार्गणा में संज्ञी जीवों का क्षेत्र चक्षुदर्शनवाले जीवों के क्षेत्र के समान लोक का असंख्यातवाँ भाग मानना चाहिए। असंज्ञी जीवों का क्षेत्र सम्पूर्ण लोक है । संज्ञी और असंज्ञी -इस संज्ञा से रहित जीवों का क्षेत्र लोक का असंख्यातवाँ भाग होता है। आहारमार्गणा में मिथ्यादृष्टि से लेकर क्षीणकषाय तक प्रत्येक गुणस्थानवाले आहारकों का क्षेत्र लोक का असंख्यातवाँ भाग है। आहारक सयोगीकेवली का क्षेत्र भी लोक का असंख्यातवाँ भाग है । मिथ्यादृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि, असंयतसम्यग्दृष्टि और अयोगी केवली अनाहारक जीवों का क्षेत्र सम्पूर्ण लोक है। सयोगी केवली अनाहारक जीवों का क्षेत्र लोक का असंख्यातवाँ भाग, लोक का बहुभाग और सम्पूर्ण लोक है। चतुर्थ स्पर्श-अनुयोगद्वार : तत्त्वार्थसूत्र की सर्वार्थसिद्धि टीका में पूज्यपाद देवनन्दी ने आठ अनुयोगद्वारों के माध्यम से चौदह मार्गणास्थानों के आधार पर चौदह गुणस्थानों का विवेचन किया गया है । स्पर्श नामक चतुर्थ अनुयोगद्वार में यह बताया गया है कि चौदह रज्जु परिमाण लोक में रहे हुए चौदह गुणस्थानवी जीव लोक के कितने भाग का स्पर्श करते हैं। स्पर्शद्वार की प्ररूपणा दो प्रकार से की गई है। एक सामान्य की अपेक्षा से और दूसरी विशेष की अपेक्षा से । सामान्य की अपेक्षा से मिथ्यादृष्टि जीव सम्पूर्ण लोक का स्पर्श करके रहे हुए हैं। सासादनसम्यग्दृष्टि जीव लोक के असंख्यातवें भाग क्षेत्र का और त्रसनाड़ी के चौदह भागों में से कुछ कम आठ२४३ भाग का अथवा कुछ कम बारह२४४ भाग क्षेत्र का स्पर्श करते है। सम्यग्मिथ्यादृष्टि व असंयतसम्यग्दृष्टि गणस्थानवी जीव लोक के असंख्यातवें भाग का और त्रसनाड़ी के चौदह २४३ मेरूपर्वत के मूल से नीचे कुछ कम दो रज्जु और ऊपर छः रज्जु । यह स्पर्श विहार वत्स्वस्थान वेदना, कषाय और वैक्रियक समुद्घात की अपेक्षा प्राप्त होता है। २४४ मेरुपर्वत के मूल से नीचे कुछ कम पाँच रज्जु और ऊपर सात रज्जु । यह स्पर्श मारणान्तिक समुद्घात की अपेक्षा प्राप्त होता है। Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001733
Book TitlePrakrit evam Sanskrit Sahitya me Gunsthan ki Avadharana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarshankalashreeji
PublisherRajrajendra Prakashan Trust Mohankheda MP
Publication Year2007
Total Pages566
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, Soul, & Spiritual
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy