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________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा........ चतुर्थ अध्याय ........{205} दोनों ही है, क्योंकि दण्ड- कपाट आदि कि स्थिति में तो लोक का असंख्यातवाँ बहुभाग परिमाण क्षेत्र होता है, किन्तु मथनी या पूरण समुद्घात की अपेक्षा सम्पूर्ण लोक होता है । विशेष की अपेक्षा से गतिमार्गणा में नरकगति में सातों पृथ्वियों में नारकी जीवों के चार गुणस्थान होते हैं । उनका क्षेत्र लोक का असंख्यातवाँ भाग परिमाण होता है । तिर्यंचगति में मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवर्ती जीवों का क्षेत्र सम्पूर्ण लोक है, किन्तु सासादनसम्यग्दृष्टि से लेकर संयतासंयत तक प्रत्येक गुणस्थानवाले तिर्यंचों का क्षेत्र लोक का असंख्यातवाँ भाग परिमाण है । मनुष्यगति में मिथ्यादृष्टि से लेकर अयोगीकेवली तक प्रत्येक गुणस्थानवाले मनुष्यों का क्षेत्र लोक का असंख्यातवाँ भाग परिमाण है । सयोगकेवली का क्षेत्र भी लोक के असंख्यातवें भाग परिमाण है, किन्तु समुद्घात की अपेक्षा से लोक का असंख्यातवाँ भाग, लोक का सख्यातवाँ बहुभाग परिमाण और सम्पूर्ण लोक होता है । देवगति में देवों में चार गुणस्थान पाए जाते हैं, उनका क्षेत्र लोक का असंख्यातवाँ भाग परिमाण हैं । इन्द्रियमाणा में एकेन्द्रिय जीवों का क्षेत्र सम्पूर्ण लोक है । विकलेन्द्रियों का क्षेत्र लोक का असंख्यातवाँ भाग परिमाण हैं और पंचेन्द्रियों का क्षेत्र लोक का असंख्यातवाँ भाग परिमाण हैं। ज्ञातव्य है कि पंचेन्द्रिय के अतिरिक्त एकेन्द्रिय और विकलेन्द्रिय जीव नियम से मिथ्यादृष्टि होते हैं । कायमार्गणा में पृथ्वीकाय से लेकर वनस्पतिकाय तक के मिध्यादृष्टि जीवों का क्षेत्र सम्पूर्ण लोक है । त्रसकाय का क्षेत्र लोक का अंसख्यातवाँ भाग परिमाण हैं । त्रसकाय के अतिरिक्त सभी कार्यों के जीव मिथ्यादृष्टि होते हैं । योगमार्गणा में मिथ्यादृष्टि से लेकर सयोगी केवली तक प्रत्येक गुणस्थानवाले मनोयोगी और वचनयोगी जीवों का क्षेत्र लोक का असंख्यातवाँ भाग परिमाण है । मिथ्यादृष्टि से लेकर सयोगीकेवली तक प्रत्येक गुणस्थानवाले काययोगी और अयोगीकेवली जीवों का क्षेत्र लोक का असंख्यातवाँ भाग परिमाण है । 1 वेदमार्गणा में मिथ्यादृष्टि से लेकर अनिवृत्तिबादर गुणस्थानवर्ती प्रत्येक गुणस्थान वाले स्त्रीवेदी और पुरुषवेदी जीवों का क्षेत्र लोक का असंख्यातवाँ भाग है । इसी प्रकार सासादनसम्यग्दृष्टि से लेकर अनिवृत्तिबादर तक प्रत्येक गुणस्थानवाले नपुंसकवेदी जीवों और अपगतवेदवाले जीवों का क्षेत्र सयोगी केवली असंख्यातवाँ भाग है, किन्तु नपुंसकवेदी एकेन्द्रिय जीवों का और अपगतवेदी केवली समुद्घात करनेवाले सयोगीकेवली का क्षेत्र सम्पूर्ण लोक है । कषायमार्गणा में मिथ्यादृष्टि से लेकर अनिवृत्तिबादर तक प्रत्येक गुणस्थानवाले क्रोध, मान, माया व लोभकषायवाले, सूक्ष्मसंपराय गुणस्थान के लोभ कषायवाले और कषाय रहित जीवों का क्षेत्र लोक का असंख्यातवाँ भाग है । ज्ञानमार्गणा में मति-अज्ञानी और श्रुत- अज्ञानी जीवों और विभंगज्ञानी मिथ्यादृष्टि का क्षेत्र सम्पूर्ण लोक है, किन्तु सम्यग्मिथ्यादृष्टि और सासादनसम्यग्दृष्टि जीवों का क्षेत्र लोक का असंख्यातवाँ भाग है । असंयतसम्यग्दृष्टि से लेकर क्षीणकषाय तक प्रत्येक गुणस्थानवाले आभिनिबोधिक ज्ञानी, श्रुतज्ञानी और अवधिज्ञानी जीवों का तथा प्रमत्तसंयत से लेकर क्षीणकषाय तक प्रत्येक गुणस्थानवाले मनः पर्यवज्ञानी जीवों का तथा सयोगी और अयोगी गुणस्थानवाले केवलज्ञानी जीवों के लोक का क्षेत्र सामान्यतया लोक का असंख्यातवाँ भाग होता है, किन्तु केवली समुद्घात की अपेक्षा से लोक का असंख्यातवाँ भाग, लोक का बहुभाग परिमाण और सम्पूर्ण लोक भी होता है । संयममार्गणा में प्रमत्तसंयत, अप्रमत्तसंयत, अपूर्वकरण और अनिवृत्तिबादरसंपराय आदि चार गुणस्थानवाले सामायिक और छेदोपस्थापनीय चारित्रवाले जीवों का तथा प्रमत्त और अप्रमत्त गुणस्थानवाले परिहारविशुद्धि संयत जीवों का, सूक्ष्मसंपराय संयत जीवों का, उपशान्तमोह आदि चार गुणस्थानवाले यथाख्यातसंयत जीवों का और संयतासंयत तथा चार गुणस्थानवाले असंयत जीवों का क्षेत्र उतना है, जितना अनुयोगद्वार में सामान्य रूप से कहा गया है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001733
Book TitlePrakrit evam Sanskrit Sahitya me Gunsthan ki Avadharana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarshankalashreeji
PublisherRajrajendra Prakashan Trust Mohankheda MP
Publication Year2007
Total Pages566
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, Soul, & Spiritual
File Size20 MB
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