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________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा...... चतुर्थ अध्याय.......{204} भाग परिमाण हैं । मिथ्यादृष्टि से लेकर संयतासंयत तक पीत (तेजो) और पद्मलेश्यावाले जीवों की संख्या असंख्यात जगश्रेणी परिमाण है । प्रमत्तसंयत और अप्रमत्तसंयत गुणस्थानवाले पीत (तेजो लेश्या) और पद्मलेश्यावाले जीव संख्यात हैं । मिथ्यादृष्टि से लेकर संयतासंयत तक शुक्ल लेश्यावाले जीव पल्योपम के असंख्यातवें भाग परिमाण हैं । यहाँ शुक्ल लेश्या से द्रव्य शुक्ल लेश्या को ग्रहण न कर भाव शुक्ल लेश्या ग्रहण करना चाहिए। प्रमत्तसंयत और अप्रमत्तसंयत जीव संख्यात हैं । अपूर्वकरण से लेकर सयोगी केवली गुणस्थान तक शुक्ललेशी जीवों की संख्या अनुयोगद्वार में इन गुणस्थानों में उल्लेखित संख्या के समरूप होती है । लेश्यारहित जीवों की संख्या अयोगी केवली गुणस्थानवी जीवों के समान ही समझना चाहिए। . भव्यमार्गणा में भव्यों में मिथ्यादृष्टि से लेकर अयोगी केवली तक सभी गुणस्थान पाए जाते हैं। प्रत्येक गुणस्थान में भव्य जीवों की संख्या अनुयोगद्वार के अनुसार समरूप से समझना चाहिए। अभव्य जीवों में मात्र प्रथम मिथ्यादृष्टि गुणस्थान ही होता है । इनकी संख्या अनन्त है। सम्यक्त्वमार्गणा में क्षायिक सम्यग्दृष्टियों में असंयतसम्यग्दृष्टि जीव पल्योपम के असंख्यातवें भाग परिमाण है, संयतासंयत से लेकर उपशान्तमोह गुणस्थान तक जीवों की संख्या संख्यात है । चारों क्षपक, सयोगी केवली और अयोगी केवली जीवों की संख्या भी संख्या अनुयोगद्वार में सामान्य रूप से कथित संख्या के समान ही होती है । क्षायोपशमिक सम्यग्दृष्टियों में असंयतसम्यग्दृष्टि से लेकर अप्रमत्तसंयत गुणस्थान तक के जीवों की संख्या भी संख्या अनुयोगद्वार में उल्लेखित सामान्य संख्या के समान ही समझना चाहिए। औपशमिक सम्यग्दृष्टियों में असंयतसम्यग्दृष्टि और संयतासंयत जीव पल्योपम के असंख्यातवें । भाग परिमाण हैं । प्रमत्तसंयत और अप्रमत्तसंयत जीव संख्यात हैं। अपूर्वकरण से उपशान्तमोह गुणस्थान तक उपशमक जीवों - की संख्या भी संख्या अनुयोगद्वार के समान ही जानना चाहिए। सासादनसम्यग्दृष्टि, सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीवों की संख्या अनुयोगद्वार के समान ही जानना चाहिए । संज्ञामार्गणा में संज्ञी में मिथ्यादृष्टि से लेकर क्षीणकषाय गुणस्थान तक के जीवों की संख्या अंसख्यात जगश्रेणी परिमाण हैं। असंज्ञी मिथ्यादृष्टि अनन्तानन्त हैं । संज्ञी, असंज्ञी और संज्ञा से रहित जीवों की संख्या अनुयोगद्वार में उल्लेखित है । उसी के आधार पर यहाँ समझना चाहिए। आहारमार्गणा में आहारकों में मिथ्यादृष्टि से लेकर सयोगी केवली गुणस्थान तक जीवों की संख्या संख्याअनुयोगद्वार में सामान्य रूप से जिस प्रकार निर्दिष्ट है, उसी के अनुसार जानना चाहिए । अनाहारकों में मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवर्ती, सासादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवर्ती और असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवी जीवों की संख्या भी संख्या अनुयोगद्वार में जिस प्रकार दर्शित है, वैसी ही समझना चाहिए । सयोगी केवली गुणस्थानवी जीव संख्यात हैं। अयोगी केवली गुणस्थानवी जीवों की संख्या, संख्या अनुयोगद्वार में जैसा दर्शाया गया है, उसी के समरूप जानना चाहिए । तृतीय क्षेत्रप्ररूपणा अनुयोगद्वार :- .. तत्त्वार्थसूत्र की सवार्थसिद्धि टीका में जिन आठ अनुयोगद्वारों में चौदह गुणस्थानों की प्ररूपणा की है, उन अनुयोगद्वारों में तृतीय द्वार क्षेत्रप्ररूपणा है। क्षेत्र यानी जीव को निवास करने का स्थान। इस अनयोगद्वार में, किस गणस्थानवर्ती जीव लोक के किस क्षेत्र में या उसके किस हिस्से में निवास करते हैं, इस बात को स्पष्ट किया गया है । क्षेत्र प्ररूपणा दो प्रकार से की गई है-सामान्य और विशेष। सामान्य की अपेक्षा मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवी जीवों का क्षेत्र सम्पूर्ण लोक है । सासादनसम्यग्दृष्टि से लेकर अयोगी केवली गुणस्थान तक के जीवों का क्षेत्र लोक के असंख्यातवें भाग परिमाण हैं। सामान्यतया तो सयोगी केवली जीवों का क्षेत्र लोक के असंख्यातवें भाग परिमाण है, किन्तु केवली समुद्घात की अपेक्षा लोक का असंख्यातवें भाग एवं सम्पूर्ण लोक Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001733
Book TitlePrakrit evam Sanskrit Sahitya me Gunsthan ki Avadharana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarshankalashreeji
PublisherRajrajendra Prakashan Trust Mohankheda MP
Publication Year2007
Total Pages566
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, Soul, & Spiritual
File Size20 MB
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