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________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा.... चतुर्थ अध्याय........{203} गुणस्थान तक के तीनों योगवाले जीव प्रत्येक गुणस्थान में संख्यात हैं । अयोगी केवली की संख्या वही है, जो पूर्व में संख्या अनुयोगद्वार में कही गई है। वेदमार्गणा में स्त्रीवेद और पुरुषवेदवाले जीव असंख्यात जगश्रेणी परिमाण हैं । जगश्रेणियाँ जगप्रतर के असंख्यातवें भाग परिमाण हैं । नपुंसकवेदवाले मिथ्यादृष्टि जीव अनन्तानन्त हैं । सासादनसम्यग्दृष्टि से लेकर संयतासंयत तक स्त्रीवेदवाले और नपुंसकवेदवाले जीवों की संख्या वही है, जो पूर्व में संख्या अनुयोगद्वार में कही गई है। प्रमत्तसंयत से लेकर अनिवृत्तिबादरसंपराय तक स्त्रीवेद और नपुंसकवेदवाले जीव संख्यात हैं । सासादनसम्यग्दृष्टि से लेकर अनिवृत्तिबादरसंपराय तक पुरुषवेदवाले जीवों की संख्या वही है, जो पूर्व में संख्या अनुयोगद्वार में सामान्य रूप से कही गई है । अपगतवेदवाले अनिवृत्तिबादरसंपराय से लेकर अयोगीकेवली गुणस्थान वाले जीवों की संख्या पूर्ववत् संख्या अनुयोगद्वार के आधार से समझना चाहिए। कषायमार्गणा में क्रोध, मान और माया कषाय में मिथ्यावृष्टि से लेकर संयतासंयत तक प्रत्येक गणस्थानवाले जीव संख्या उतनी होती है, जो संख्या अनुयोगद्वार में सामान्य रूप से उल्लेखित है । प्रमत्तसंयत से लेकर अनिवृत्तिबादरसंपराय गुणस्थान तक क्रोध, मान और माया कषायवाले जीव संख्यात हैं । यही संख्या लोभ कषायवाले जीवों की भी समझना चाहिए । इतना विशेष है कि सूक्ष्मसंपराय नामक दसवें गुणस्थान में मात्र लोभ कषाय रहती है। इनकी संख्या सूक्ष्मसंपराय गुणस्थानवर्ती जीवों के तुल्य ही होती है । उपशान्तमोह से लेकर अयोगी केवली गुणस्थान तक कषाय रहित जीवों की संख्या संख्यात है । इनका विशेष विवरण तो संख्या अनुयोगद्वार के समान समझना चाहिए। __ज्ञानमार्गणा में मति-अज्ञानी, श्रुत-अज्ञानी, मिथ्यादृष्टि और सासादनसम्यग्दृष्टि जीवों की संख्या अनन्तानन्त है । विभंगज्ञानी मिथ्यादृष्टि जीव असंख्यात जगश्रेणी परिमाण है। जगश्रेणियाँ जगप्रतर के असंख्यातवें भाग परिमाण होती है । सासादनसम्यग्दृष्टि विभंगज्ञानी जीव पल्योपम के असंख्यातवें भाग परिमाण हैं । असंयतसम्यग्दृष्टि से लेकर क्षीणकषाय गुणस्थान तक मतिज्ञानी और श्रुतज्ञानी जीवों की संख्या उतनी ही होती है, जितनी संख्या अनुयोगद्वार में सामान्य रूप से निर्दिष्ट की गई है । असंयतसम्यग्दृष्टि और संयतासंयत अवधिज्ञानी जीवों की संख्या पल्योपम के असंख्यातवें भाग परिमाण है । प्रमत्तसंयत से लेकर क्षीणकषाय गुणस्थान तक प्रत्येक गुणस्थान में अवधिज्ञानी जीव संख्यात होते हैं। प्रमत्तसंयत से लेकर क्षीणकषाय गुणस्थान तक प्रत्येक गुणस्थान में मनः पर्यवज्ञानी जीव भी संख्यात हैं । सयोगी केवली और अयोगी केवली की संख्या भी संख्यात है। यहाँ संख्यात शब्द का प्रयोग सामान्य रूप से हुआ है । संख्या की अपेक्षा उनमें कम अधिकता होती है । संयममार्गणा में प्रमत्तसंयत से लेकर अनिवृत्तिबादरसंपराय तक सामायिक संयत और छेदोस्थापनीय संयत जीवों की संख्या संख्यात हैं । प्रमत्त और अप्रमत्त गुणस्थान में परिहारविशुद्धि संयत जीव भी संख्यात है। सूक्ष्मसंपराय संयत और यथाख्यात संयत जीव भी संख्यात हैं, किन्तु संयतासंयत जीव पल्योपम के असंख्यातवें भाग परिमाण होते हैं । असंयत जीव तो अनन्तानन्त हैं। दर्शनमार्गणा में चक्षुदर्शनवाले मिथ्यादृष्टि जीव असंख्यात जगश्रेणी परिमाण हैं, जगश्रेणियाँ जगप्रतर के असंख्यातवें भाग परिमाण होती हैं । अचक्षुदर्शनवाले मिथ्यादृष्टि जीव अनन्तानन्त है। सासादनसम्यग्दृष्टि से लेकर क्षीणकषाय तक चक्षुदर्शन और अचक्षुदर्शनवाले जीवों की संख्या अनुयोगद्वार में सामान्य रूप से कथित संख्या के समान ही होती है। अवधि दर्शन वाले जीवों की संख्या अवधि ज्ञानियों के समान पल्योपम के असंख्यातवें भाग परिमाण हैं । केवल दर्शन वाले जीवों की संख्या केवलज्ञानियों के समान है। लेश्यामार्गणा में मिथ्यादृष्टि से लेकर असंयतसम्यग्दृष्टि तक कृष्ण, नील और कापोत लेश्यावाले जीवों की संख्या मिथ्यात्व गुणस्थान में अनन्तानन्त है । सासादनसम्यग्दृष्टि से लेकर संयतासंयत गुणस्थान तक के गुणस्थानों में पल्योपम के असंख्यातवें Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001733
Book TitlePrakrit evam Sanskrit Sahitya me Gunsthan ki Avadharana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarshankalashreeji
PublisherRajrajendra Prakashan Trust Mohankheda MP
Publication Year2007
Total Pages566
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, Soul, & Spiritual
File Size20 MB
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