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________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा.. चतुर्थ अध्याय.......{202} असंयतसम्यग्दृष्टि और संयतासंयत - इनमें से प्रत्येक गुणस्थानवाले जीव पल्योपम के असंख्यातवें भाग परिमाण हैं । प्रमत्तसंयत जीवों की संख्या सहस्त्रकोटि पृथक्त्व है । अप्रमत्तसंयत जीव संख्यात हैं । चारों उपशमक गुणस्थानवाले जीव प्रवेश की अपेक्षा से प्रतिसमय एक, दो या तीन होते हैं, उत्कृष्ट रूप से चौवन हो सकते हैं । अपने काल के द्वारा संचित अर्थात् उस समय विशेष में उस अवस्था में रहे हुए जीव संख्यात हैं। चारों क्षपक और अयोगी केवली प्रवेश की अपेक्षा से एक, दो या तीन होते हैं, उत्कृष्ट रूप से एक सौ आठ होते हैं और अपने काल के द्वारा संचित हुए अर्थात् समकालिक जीव संख्यात हैं । सयोगीकेवली जीव प्रवेश की अपेक्षा एक समय में एक, दो या तीन ही होते हैं, उत्कृष्ट रूप से एक सौ आठ होते हैं तथा अपने काल के द्वारा संचित हुए समकालिक जीव पृथक्त्व हैं । विशेष की अपेक्षा गतिमार्गणा में नरकगति में पहली पृथ्वी में मिथ्यादृष्टि नारकी असंख्यात जगश्रेणी२४० परिमाण हैं, वे जगश्रेणियाँ जगप्रतर" के असंख्यातवें भाग परिमाण हैं । दूसरी पृथ्वी से लेकर सातवीं पृथ्वी तक प्रत्येक पृथ्वी में मिथ्यादष्टि नारकी जगश्रेणी के असंख्यातवें२४२ भाग परिमाण हैं । जगश्रेणी का असंख्यातवाँ भाग असंख्यात कोडाकोड़ीयोजन परिमाण हैं। प्रथम से लेकर सातवीं नरक पृथ्वी तक में सासादनसम्यग्दृष्टि, सम्यग्मिथ्यादृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि नारकी पल्योपम के असंख्यातवें भाग परिमाण हैं । तिर्यंचगति में मिथ्यादृष्टि तिर्यच अनन्तानन्त हैं । सासादनसम्यग्दृष्टि से लेकर संयतासंयत तक प्रत्येक गुणस्थानवर्ती तिर्यच पल्योपम के असंख्यातवें भाग परिमाण हैं । मनुष्यगति में मिथ्यादृष्टि मनुष्य जगश्रेणी के असंख्यातवें भाग परिमाण हैं । जगश्रेणी का असंख्यातवाँ भाग असंख्यात कोड़ाकोड़ी योजन परिमाण हैं । सासादनसम्यग्दृष्टि से लेकर संयतासंयत तक प्रत्येक गुणस्थानवर्ती जीव संख्यात है । प्रमत्तसंयत आदि गुणस्थानवर्ती मनुष्यों की संख्या सहस्त्रकोटि पृथक्त्व है । देवगति में मिथ्यादृष्टि देव असंख्यात जगश्रेणी परिमाण हैं । जगश्रेणियाँ जगप्रतर के असंख्यातवें भाग परिमाण होती है। सासादनसम्यग्दृष्टि, सम्यग्मिथ्यादृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि - इनमें से प्रत्येक गुणस्थानवर्ती देव पल्योपम के असंख्यातवें भाग परिमाण हैं। इन्द्रियमार्गणा में एकेन्द्रिय मिथ्यादृष्टि जीव अनन्तानन्त हैं, विकलेन्द्रिय जीव असंख्यात जगश्रेणी परिमाण हैं, जगश्रेणियाँ जगप्रतर के असंख्यातवें भाग परिमाण हैं। पंचेन्द्रियों में मिथ्यादृष्टि जीव असंख्यात जगश्रेणी परिमाण हैं । जगश्रेणियाँ जगप्रतर के असंख्यातवें भाग परिमाण हैं । सासादन सम्यग्दृष्टि से लेकर अयोगी केवली तक प्रत्येक गुणस्थानवर्ती पंचेन्द्रियों की संख्या वही है, जो पूर्व में गतिमार्गणा में सामान्य रूप से बताई गई है। कायमार्गणा में मिथ्यात्व गुणस्थान में पृथ्वीकाय अप्काय, अग्निकाय और वायुकाय के जीवों की संख्या असंख्यात लोक परिमाण हैं । वनस्पतिकाय के जीव अनन्तानन्त हैं और त्रसकाय के जीवों की संख्या पंचेन्द्रियों के समान ही है । यद्यपि पंचेन्द्रिय जीव त्रसकाय जीवों की अपेक्षा कम है, फिर भी दोनों ही असंख्यात कहे गए हैं। अतः इस अपेक्षा से दोनों समान हैं । योगमार्गणा में मनोयोगी और वचनयोगी मिथ्यादृष्टि जीव असंख्यात जगश्रेणी परिमाण हैं, जगश्रेणियाँ जगप्रतर के असंख्यातवें भाग परिमाण हैं । काययोगियों में मिथ्यादृष्टि जीव अनन्तानन्त हैं । तीनों योगवाले में सासादनसम्यग्दृष्टि से लेकर संयतासंयत गुणस्थान तक प्रत्येक गुणस्थानवाले जीव पल्योपम के असंख्यातवें भाग परिमाण हैं । प्रमत्तसंयत से लेकर सयोगी केवली २४० सात रज्जु लम्बी और एक प्रदेश परिमाण चौड़ी आकाश प्रदेश की पंक्ति को जगश्रेणी कहते हैं । ऐसी जगप्रतर के असंख्यातवें भाग परिमाण जगश्रेणी में जितने प्रदेश होते हैं, उतने प्रथम नारक के मिथ्यादृष्टि नारकी हैं । २४१ जगश्रेणी के वर्ग को जगप्रतर कहते हैं । २४२ जगश्रेणी में ऐसे असंख्यात का भाग दो कि जिससे असंख्यात योजन कोटाकोटि परिमाण आकाश प्रदेश प्राप्त हो, इतनी दूसरे आदि प्रत्येक नरक के नारकियों की संख्या है । वह उत्तरोत्तर हीन है । Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001733
Book TitlePrakrit evam Sanskrit Sahitya me Gunsthan ki Avadharana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarshankalashreeji
PublisherRajrajendra Prakashan Trust Mohankheda MP
Publication Year2007
Total Pages566
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, Soul, & Spiritual
File Size20 MB
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