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प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा.......
चतुर्थ अध्याय ........{201} ज्ञानमार्गणा में मति- अज्ञान, श्रुत- अज्ञान और विभंगज्ञान में पहला और दूसरा ऐसे दो गुणस्थान हो सकते हैं । मतिज्ञान, श्रुतज्ञान और अवधिज्ञान में चौथे से लेकर बारहवें तक नौ गुणस्थान पाए जाते हैं । मनः पर्यवज्ञान में प्रमत्तसंयत नामक छठे गुणस्थान से लेकर क्षीणकषाय नामक बारहवें गुणस्थान तक सात गुणस्थान पाए जाते हैं । केवलज्ञान में सयोगी केवली और अयोगी केवली - ये दो गुणस्थान पाए जाते हैं । सामान्यतया संयममार्गणा में छठे से चौदहवें तक नौ गुणस्थान पाए जाते हैं । विशेष रूप से सामायिक और छेदोपस्थापनीय चारित्रवाले संयमी मुनियों में प्रमत्तसंयत से लेकर अनिवृत्तिबादरसंपराय तक चार गुणस्थान पाए जाते हैं । परिहारविशुद्धि चारित्रवाले संयमी मुनियों में प्रमत्तसंयत और अप्रमत्तसंयत- ये दो गुणस्थान पाए जाते हैं ।
सूक्ष्मसम्परायचारित्र में सूक्ष्मसम्पराय नामक गुणस्थान होता है । यथाख्यात चारित्रवाले संयमी मुनियों में उपशान्तकषाय गुणस्थान से लेकर अयोगीकेवली तक चार गुणस्थान पाए जाते हैं । संयतासंयत जीवों में संयतासंयत नामक पांचवाँ गुणस्थान पाया जाता है और असंयमी जीवों में प्रारम्भ के चार गुणस्थान पाए जाते हैं ।
दर्शनमार्गणा में चक्षुदर्शन और अचक्षुदर्शन से युक्त जीवों में मिथ्यादृष्टि से लेकर क्षीणकषाय तक बारह गुणस्थान पाए जाते हैं । अवधिदर्शन में असंयतसम्यग्दृष्टि से लेकर क्षीणकषाय तक नौ गुणस्थान पाए जाते हैं । केवलदर्शन में सयोगी केवली और अयोगी केवली ये दो गुणस्थान पाए जाते हैं ।
लेश्यामार्गणा में कृष्ण, नील और कापोत लेश्या में मिथ्यादृष्टि से असंयतसम्यग्दृष्टि तक चार गुणस्थान पाए जाते हैं । पीतलेश्या और पद्मलेश्या में मिथ्यादृष्टि से सयोगी केवली तक तेरह गुणस्थान पाए जाते हैं। चौदहवें गुणस्थानवर्ती जीव अशी अर्थात् लेश्या रहित होते है ।
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भव्यमार्गणा में भव्य जीवों में प्रथम से लेकर चौदहवें गुणस्थान तक चौदह गुणस्थान पाए जाते हैं। अभव्य जीवों में मात्र मिथ्यादृष्टि गुणस्थान ही पाया जाता है ।
सम्यक्त्वमार्गणा में क्षायिक सम्यक्त्व में असंयतसम्यग्दृष्टि से लेकर अयोगी केवली तक ग्यारह गुणस्थान पाए जाते हैं । क्षायोपशमिक सम्यक्त्व में असंयतसम्यग्दृष्टि से अप्रमत्तसंयत तक चार गुणस्थान पाए जाते हैं । औपशमिक सम्यक्त्व में असंयतसम्यग्दृष्टि से उपशान्तकषाय तक आठ गुणस्थान पाए जाते हैं । मिध्यादृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टि में अपने-अपने नाम के अनुरूप गुणस्थान होते हैं ।
संज्ञीमार्गणा में संज्ञी जीवों में प्रथम से बारहवें तक बारह गुणस्थान पाए जाते हैं । असंज्ञी जीवों में मिथ्यादृष्टि गुणस्थान पाया जाता है । सयोगीकेवली और अयोगीकेवली गुणस्थानवर्ती जीव संज्ञी या असंज्ञी की कोटि में नहीं आते हैं ।
आहारमार्गणा में आहारक जीवों में मिथ्यादृष्टि से लेकर सयोगीकेवली तक तेरह गुणस्थान होते हैं। विग्रहगतिवाले अनाहारक जीवों में मिध्यादृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि- ये तीनों गुणस्थान पाए जाते हैं । समुद्घात करनेवाले सयोगीकेवली और अयोगीकेवली जीव अनाहारक ही होते हैं । सिद्ध जीव तो गुणस्थान से परे हैं, यद्यपि वे भी अनाहारक ही हैं।
द्वितीय संख्या-अनुयोगद्वार :
तत्त्वार्थसूत्र की सर्वार्थसिद्धिटीका में आठ अनुयोगद्वारों को लेकर चौदह गुणस्थानों की जो चर्चा की है, उसमें द्वितीय अनुयोगद्वार संख्या है । इसमें प्रत्येक गुणस्थान में जीवों की संख्या का परिमाण निर्देशित किया गया है । संख्या की प्ररूपणा दो प्रकार से की है - सामान्य और विशेष । सामान्य की अपेक्षा मिथ्यादृष्टि जीव अनन्तानन्त हैं । सासादनसम्यग्दृष्टि, सम्यग्मिथ्यादृष्टि,
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